पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३७
उत्पत्ति प्रकरण।

तृण और काष्ठ के तुल्य हैं। उनके विचारने से क्या है? यह सब मन की रचना है और मन अविचार से सिद्ध है, विचार करने से नष्ट हो जाता है। मन के नष्ट हुए परमात्मा ही शेष रहता है जो सबका साक्षी भृत सर्व से प्रतीत; सर्वव्यापी और सबकामाश्रयमृत है। उसके प्रमाद से मन जगत् को रच सकता है इस कारण कहा है कि मन और कर्म एकरूप हैं और शरीरों के कारण है। हे रामजी! जन्म मरण मादि जो कुछ विकार हैं वे मन से ही भासते हैं और मन भविचार से सिद्ध हे विचार किये से लीन हो जाता है। जब मन लीन होता है तब कर्म भादि भ्रम भी नष्ट हो जाते हैं। जो इस भ्रम से छूटा है वही मुक्त है भोर वह पुरुष फिर जन्म और मरण में नहीं माता, उसका सब भ्रम नष्ट हो जाता है। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन! पापने सात्त्विकी, राजसी और तामसी तीन प्रकार के जीव कहे हैं और उनका प्रथम कारण सत्य असत्यरूपी मन कहा था, वह मन अशुद्धरूप शुद्ध चिन्मात्र तत्त्व से उपजकर बड़े विस्ताररूपी विचित्र जगत् को कैसे प्राप्त हुभा? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आकाश तीन हैं एक चिदाकाश, दूसरा चित्ताकाश; और तीसरा भूताकाश। भाव से वे समानरूप हैं और आप अपनी सत्ता है। जो चित्ताकाश से नित्य उपलब्धरूप और चेतनमात्र सबके भीतर बाहर स्थित हैं, अनुमाता, बोधरूप और सर्वभूतों में सम व्याप रहा है वह चिदाकाश है। जो सर्वभूतों का कारणरूप है और आप विकल्परूप है और सब जगत को जिसने विस्तारा है वह चित्ताकाश कहाता है। दश दिशाओं को विस्तारकर जिसका वपु प्रच्छेद को नहीं प्राप्त होता शून्यस्वरूप है भोर पवन प्रादिक भूतों में भाश्रयभूत है वह भूताकाश कहाता है। हे रामजी! चित्ताकाश और भृताकाश दोनों चिदाकाश से उपजे हैं और सबके कारण हैं ्। जैसे दिन से सब कार्य होते हैं तैसे ही चित्त से सब पदार्थ प्रकट होते हैं। वह चित्त जड़ भी नहीं, और चैतन्य भी नहीं आकाश भी उसी से उपजता है। हे रामजी! ये तीनों आकाश भी अपबोधक के विषय हैं बानी के विषय नहीं। ज्ञानवान तीन माकाश भवानी के उपदेश के निमित्त कहते हैं। बानवार को एक परब्रह्म पूर्ण सर्व