पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३८
योगवाशिष्ठ।

कल्पना से रहित भासता है। द्वैत, अद्वैत और शब्द भी उपदेश के निमित्त हे प्रबोध का विषय कोई नहीं। हे रामजी! जबतक तुम प्रदोश आत्मा नहीं हुए तबतक मैं तीन आकाश कहता हूँ—वास्तव में कोई कल्पना नहीं जेसे दावाग्नि लगे से वन जलकर शून्य भासता हे तैसे ही ज्ञानाग्नि से जले हुए चित्ताकाश भोर भताकाश चिदाकाश में शुन्य कल्पना भासते हैं। मलीन चैतन्य जो चैत्यता को प्राप्त होता है इससे यह जगत् भासता है। जैसे इन्द्रजाल की बाजी होती हे तेसे ही यह जगत् है। बोधहीन को यह जगत् भासता है। जैसे असम्यकदी को सीपी में रूपा भासता है तैसे अज्ञानी को जगत् भासता है—आत्मतत्त्व नहीं भासता। जब दृश्यभ्रम नष्ट हो जावे तब मुक्तरूप हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे चिदाकाशमाहात्म्यवर्णनन्नाम
त्रिसप्ततितमस्सर्गः॥७३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो कुछ उपजा है इसे तुम चित्त से उपजा जानो। यह जैसे उपजा है तैसे उपजा है अब तुम इसकी निवृत्ति के लिये यत्न करके आत्मपद में चित्त लगानो तब यह जगभ्रम नष्ट हो जावेगा। हे रामजी! इस चित्त पर एक चित्ताख्यान जो पूर्व हुमा हे उसे सुनो, जैसे मैंने देखा है तैसे ही तुमसे कहता हूँ। एक महाशून्य वन था और उसके किसी कोने में यह आकाश स्थित था उस उजाड़ में मैंने एक ऐसा पुरुष देखा जिसके सहस्र हाथ और सहस्र लोचन ये और चञ्चल और व्याकुल रूप था। उसका बड़ा आकार था और सहस्र भुजाओं से अपने शरीर के मारे पापही कष्टमान होभनेक योजनों तक भागता चला जाता था। जब दौड़ता दौड़ता थक जाय और अङ्ग चूर्ण हो जायें तो एक कृष्ण रात्रि की नाई भयानकरूप कूप में जा पड़े भोर जब कुछ काल वीते तब वहाँ से भी निकलकर का के वन में जा पड़े और जब वहाँ कण्टक चुभे तो कष्ट पावे। जैसे पता दीपक को सुखरूप जान के उसमें प्रवेश करे और नाश हो तैसे ही वह जहाँ सुखरूप जानके प्रवेश करे वही ही कष्ट पावे और फिर उसी वन में जा पड़े फिर वहाँ से निकलकर आपको अपने ही हाथों से मारे और कष्टमान हो और फिर दौड़ता दोड़ तादूप