पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४७

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उत्पति प्रकरण।

मनुष्य ऐसे मूर्ख हैं कि अपने नाश के निमित्त ही दुःखरूप कर्म करते हैं उनमें जो विहित करके विवेक के निकट भाते हैं वे शुभ अशुभ कमों के बन्धन से मुक्त होकर परमपद को प्राप्त होते हैं और जो विवेक से हित नहीं करते वे दूर से दूर भटकते हैं। हे रामजी! जो पुरुष भोग भोगने के निमित्त तप आदिक पुण्यकर्म करते हैं वे उत्तम शरीर परके स्वर्गसुख भोगते हैं। वे जो मनरूपी पुरुष मुझको देख के कहते थे कि तू हमारा शत्रु है तुझसे हम नष्ट होते हैं और रुदन करते थे वे विषयभोग त्यागने के निमित्त मूर्ख चित्त मनुष्य कष्ट पाते थे क्योंकि मूखों की प्रीति विषय में होती है और उसके त्यागने से वे कष्टमान होते हैं और विवेक को देख के रुदन करने लगते हैं कि ये अर्द्ध प्रबुद्ध हैं। जिनको परमपद की प्राप्ति नहीं हुई वे भोगों को त्यागे से कष्टवान होते हैं और रुदन करते हैं। जब अर्द्ध प्रबोध मूर्खचित्त अभिलाषारूपी भङ्गों से तपायमान हुआ अज्ञान को त्याग करता है और विवेक को प्राप्त होता है तब परम तुष्टिमान हो इसने लगता है इससे तुम भी विवेक को प्राप्त होकर संसार की वासना को त्यागो तब आनन्दमान होगे। पूर्व के स्वभाव और नीच चेष्टा को त्यागकर वह इसलिये हँसता है कि मैं मिथ्या चेष्टा करता था और चिरकाल पर्यन्त मूर्खता से कष्ट पाता रहा। हे रामजी! जब इस प्रकार विवेक को प्राप्त होकर चित्त परमपद में विश्राम पाता है तब पूर्व की दीन चेष्टा को स्मरण करके हँसता है। हे रामजी! जब मैं उस मनरूपी पुरुष को रोककर पूछता था और वह अपने अङ्गों को त्यागता जाता था वह भी सुनो। मैं विवेकरूप हूँ। जब मैं उस चित्तरूपी पुरुष को मिला तब उसके सहस्र हाथ और सहस्र लोचनरूपी अभिलाषाओं का त्याग हुआ और वह अपने प्रहार करने से भी रह गया और जब उस पुरुष का शीश और परिच्छिन्न देह अभिमानी गिर पड़ा तब दुर्वासनारूपी अङ्गों को उसने त्याग दिया। उनको त्यागकर वह आप भी नष्ट हो गया सो अहंकार ने अपनी निर्वाणता को देखा अर्थात् परब्रह्म में लीन हो गया। हे रामजी! पुरुष को बन्धन का कारण वासना है। जैसे बालक विचार से हित चञ्चलरूपी चेष्टा करता है