पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५

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वैराग्य प्रकरण।

अपने नारा के निमित्त करते हैं। ज्ञानवान् पुरुष जिनकी परमपद में स्थिति है और उससे तृप्त हुए हैं, उनका जीना सुख के निमित्त है। उनके जीने से और के कार्य भी सिद्ध होते हैं। उनका जीना चिन्तामणि की नाई श्रेष्ठ है। जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और आत्मपद से विमुख हैं उनका जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है वह मनुष्य नहीं गर्दभ है। जैसे वृक्ष पक्षी पशु का जीना है वैसे उनका भी जीना है। हे मुनीश्वर! जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है। जैसे और भार होता है वैसे ही पढ़ने का भी भार हे और जो पढ़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है। हे मुनीश्वर! यह मन आकाशरूप है। जो मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है। इसका जीना तभी श्रेष्ठ है जब आत्मपद को पावे अन्यथा जीना व्यर्थ है। आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है। जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है। जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फंसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं। हे मुनीश्वर! जैसे सागर में तरङ्ग भनेक उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही यह लक्ष्मी भी क्षणभंगुर है। इसको पाकर जो अभिमान करता है सो मुर्ख है। जैसे विल्ली चूहे को पकड़ने के लिये पड़ी रहती है। वैसे ही लक्ष्मी उनको नरक में डालने के लिये घर में पड़ी रहती है। जैसे अञ्जली में जल नहीं ठहरता वैसे ही लक्ष्मी भी नहीं ठहरती। ऐसी क्षणभंगुर लक्ष्मी और शरीर को पाकर जो भोग की तृष्णा करता है वह महामूर्ख है। वह मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ जीने की आशा करता है। जैसे सर्प के मुख में मूर्ख मेंढ़क पड़कर मच्छर खाने की इच्छा करता है वैसे ही जो जीव मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ भोग की वाञ्छा करता है वह महामूर्ख है। जब युवा अवस्था नदी के प्रवाह की नाई चली जाती हैं तब वृद्धावस्था आती है। उसमें महादुःख प्रकट होते हैं और