मोह से कल्पा है और फिर दृश्य प्रपञ्च को रचा है। वह प्रपञ्च कल्पनामात्र है और बालक की कथावत् मूर्खों को रुचता है अर्थात् जो विचार से रहित हैं उनको यह जगत् सत्य भासता है।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे चित्तचिकित्सावखननाम
षट्सप्ततितमस्सर्गः॥७६॥
रामजी बोले, हे मुनियों में श्रेष्ठ! बालक की कथा क्या है वह कम से कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामचन्द्र! एक मूर्ख बालक ने दाई से कहा कि कोई अपूर्व कथा जो आगे न हुई हो मुझसे कह। तब उसके विनोद निमित्त महाबुद्धिमान धात्री एक कथा कहने लगी। वह बोली हे पुत्र! सुन, एक बड़ा शून्य नगर था और उसका एक राजा था। उस राजा के शुभ आचारवान और बड़े सुन्दर तेजवान तीन पुत्र थे। उनमें से दो तो उपजे न थे और एक गर्भ में ही आया न था। वे तीनों शुभ आचारवान और शुभ क्रिया कर्चा द्रव्य के अर्थ जीतने को चले और शून्य नगर से बाहर जा निमार्गरूप नगर में वे निर्बुध और शोकसहित इकट्ठे ऐसे चले जैसे बुध, शुक्र और शनैश्चर! इकट्ठे चलने का दृष्टान्त शुक्र, शनैश्चर और बुध का नहीं है, निर्बुध और शोक का ग्रहणरूप दृष्टान्त है। सरसों के फूलों की नाई उनके अङ्ग कोमल थे इसलिये वे मार्ग में थक गये और ऊपर से सूर्य की धूप तपने लगी। जैसे ज्येष्ठआषाढ़ की धूप से कमल कुम्हिला जाते हैं तैसे ही वे भी कुम्हिला गये और तप्त चरणों से तपने लगे और महाशोक को प्राप्त हुए। चरणों में डाम के कण्टक लगे, मुख धूर से धूसर हो गये और तीनों कष्टवान् हुए। आगे चलकर उन्होंने तीन वृक्ष देखे जिनमें से दो तो उपजे नहीं और तीसरे का बीज भी नहीं बोया गया। उन तीनों ने एक-एक वृक्ष के नीचे आकर विश्राम किया—जैसे स्वर्ग में कल्पवृक्ष के नीचे इन्द्र और यम या बैठे—और उनके फल भक्षण किये, फलों को काट के रस पान किया, उनके फूलों की माला गले में पहिरी और चिरकाल पर्यन्त वहाँ विश्रामकर फिर दूर से दूर चले गये। इतने में मध्याह्न का समय हु उससे वे तपायमान हुए। आगे उन्होंने तीन नदियाँ देखीं और