पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५२

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योगवाशिष्ठ।

उनके निकट गये जो तरङ्गों से लीलायमान थीं। उनमें से दो में तो कुछ भी जल न था और तीसरी सूखी पड़ी थी। उनमें वे चिरकाल पर्यन्त क्रीड़ा करते रहे—जैसे स्वर्ग की गंगा में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र कलोल करते हैं और जलपान किया। फिर जब दिन भस्त होने लगा तब वहाँ से चले तो एक भविष्यत् नगर देखा जो बड़ी ध्वजाओं से सम्पन्न और रत्न मणि और सुवर्ण से जड़ा मानों सुमेरु का शिखर था। उसमें उन्होंने हीरे और माणिकों से जड़ा हुमा एक मंदिर देखा जो निराकाररूप था। उसमें वे घुस गये तो वहाँ बहुत भंगना देखी भोर फिर विचार किया कि रसोई कीजिये और ब्राह्मण को भोजन खवाइये। तब उन्होंने कञ्चन की तीन वटलोइयाँ मँगवाई जिनमें से दो का करने वाला तो उपजा नहीं अर्थात् आधार से रहित थीं और तीसरी चूर्णरूप थी। उस चूर्णरूप बटलोई में उन्होंने सोलह सेर रसोई चढ़ाई और ब्रह्मा भादि विदेहरूप और निर्मुख ऋषियों ने भोजन किया। उससे उन्होंने सैकड़ों ब्राह्मणों को भोजन कराया आप भी भोजन किया। इस प्रकार वह राजपूत पाजतक सुख से स्थित हैं। हे पुत्र! यह रमणीय कथा मैंने तुझसे सुनाई है। यदि तू इसको हृदय में धारेगा तो पंडित होगा। हे रामजी! इस प्रकार धात्री ने जब बालक को कथा सुनाई तब बालक के मन में सच प्रतीत हुई। जैसे उस कथा का रूप संकल्प से भिन्न कुछ न था तैसे यह जगत् सब संकल्पमात्र है, अज्ञान से हृदय में स्थिर हो रहा है, भ्रम में इससे आस्था हुई है और बन्ध, मोक्ष भी कल्पनामात्र है संकल्प से भिन्न इसका स्वरूप नहीं। हे रामजी! शुद्ध आत्मा निष्किञ्चनरूप है पर संकल्प के वश से किञ्चनरूप हो भासता है। पृथ्वी वायु, आकाश नदियाँ, देश प्रादिक जो पाञ्चभौतिक सृष्टि है सो सब संकल्पमात्र हैं जैसे स्वम में नाना प्रकार की सृष्टि भासती है और कुछ नहीं उपजी तैसे ही इस जगत् को जानो। जैसे कल्पित राजपुत्र भविष्यत् नगर में स्थित हुए थे और वह रचना संकल्प बालक को स्थिरीभूत हुई थी तैसे ही यह जगत् संकल्पमात्र मन के फुरने से दृढ़ हुआ है। जैसे द्रवता से जो जल में तरङ्ग होते हैं वह जल ही जल है तेसे ही आत्मा