पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५३

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उत्पत्ति प्रकरण।

ही आत्मा में स्थित है! यह सब जगत् संकल्प से उपजता है और बड़े विस्तारको प्राप्त होता है जैसे दिन होने से सब व्यवहार विस्तार को प्राप्त होते हैं तैसे ही संकल्प से उपजा जगत् विस्तार को प्राप्त होता है और चित् का विलास है, चित् के फुरने से भासता है। इससे हे रामजी! संकल्परूपी मैल को त्याग करके निर्विकल्प आत्मतत्त्व का आश्रय करो। जब उस पद में स्थित होगे तब परम शान्ति की प्राप्ति होगी।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बालकाख्यायिकावर्णनन्नाम
सप्तसप्ततितमस्सर्गः॥७७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मूढ़ अज्ञानी पुरुष अपने संकल्प से आप ही मोह को प्राप्त होता है और जो पण्डित है वह मोह को नहीं प्राप्त होता। जैसे मूर्ख बालक अपनी परछाही में पिशाच कल्पकर भय पाता है तेसे ही मूर्ख अपनी कल्पना से दुःखी होता है। रामजी बोले, हे भगवन! ब्रह्मवेत्तानों में श्रेष्ठ! वह संकल्प क्या है और बाया क्या है जो असत्य ही सत्यरूप पिशाच की नाई दीखती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पाञ्चभौतिक शरीर परवाही की नाई है, क्योंकि अपनी कल्पना से रचा है और अहंकाररूपी पिशाव है। जैसे मिथ्या परवाही में पिशाच को देख के मनुष्य भयवान होता है तैसे ही देह में अहंकार को देखके खेद प्राप्त होता है। हे रामजी! एक परमात्मा सर्व में स्थित है तब अहंकार कैसे हो वास्तव में अहंकार कोई नहीं परमात्मा ही अभेदरूप है और उसमें अहंबुद्धि भ्रम से भासती है। जैसे मिथ्यादी को मरुस्थल में जल भासता है तैसे ही मिथ्यावान से अहंकार कल्पना होती है। जैसे मणि का प्रकाश मणि पर पड़ता है सो माण से भिन्न नहीं, मणिरूप ही है, तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है सो आत्मा ही में स्थित है। जैसे जल में द्रवता से चक्र और तरङ्ग हो भासते हैं सो जलरूप ही हैं, तेसे ही आत्मा में चित्त से जो नानात्व हो भासता है सो आत्मा से भिन्न नहीं, असम्यक् दर्शन से नानात्व भासता है। इससे असम्यक दृष्टि को त्याग के आनन्दरूप का आश्रय करो और मोह के आरम्भ को त्याग कर शुद्ध बुद्धि सहित विचारो और विचार से सत्य ग्रहण