पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५४

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योगवाशिष्ठ।

असत्य का त्याग करो। हे रामजीतुम मोह का माहात्म्य देखो कि स्थूलरूप देह जो नाशवन्त है उसके रखने का उपाय करता है पर बह रहता नहीं और जिस मनरूपी शरीर के नाश हुए कल्याण होता है उसको पुष्ट करता है। हे रामजी! सब मोह के प्रारम्भ मिथ्या भ्रम से दृढ़ हुए हैं, अनन्त आत्मतत्त्व में कोई कल्पना नहीं, कौन किसको कहे। जो कुछ नानात्व भासता है वह है नहीं और जीव ब्रह्म से अभिन्न है। उस ब्रह्मतत्व में किसे बन्ध कहिये और किसे मोक्ष कहिये, वास्तव में न कोई बन्ध है न मोक्ष है, क्योंकि आत्मसत्ता अनन्तरूप है। हे रामजी! वास्तव में दैतकल्पना कोई नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता अपने भाप में है। जो आत्मातत्त्व अनन्त है वही प्रज्ञान से अन्य की नाई भासता है। जब जीव अनात्म में भात्माभिमान करता है तब परिच्छिन्न कल्पना होती है और शरीर को मच्छेदरूप जान के कष्टवान होता है पर प्रात्मपद में भेद अभेद विकार कोई नहीं, क्योंकि वह तो नित्य, शुद्ध, बोध और अविनाशी पुरुष है। हे रामजी! आत्मा में न कोई विकार है, न बन्धन है और न मोक्ष है, क्योंकि भात्मतत्त्व अनन्तरूप, निर्विकार, अच्छेद, निराकार और अद्वैतरूप है। उसको बन्ध विकार कल्पना कैसे हो? हे रामजी! देह के नष्ट हुए प्रात्मा नष्ट नहीं होता। जैसे चमड़ी में प्राकाश होता है तो वह चमड़ी के नाश हुए नष्ट नहीं होता तैसे ही दह के नाश हुए आत्मा नष्ट नहीं होता। जैसे फूल के नाश हुए गन्ध प्राकाश में लीन होती है, जैसे कमल पर बरफ पड़ता है तो कमल नष्ट हो जाता है भ्रमर नष्ट नहीं होता और जैसे मेघ के नाश हुए पवन का नाश नहीं होता, तैसे ही देह के नाश हुए प्रात्मा का नाश नहीं होता। हे रामजी! सबका शरीर मन है और वह भात्मा की शक्ति है, उसमें यह शरीर आदिक जगत् रचा है। उम मन का ज्ञान विना नाश नहीं होता तो फिर शरीर भादि के नष्ट हुए आत्मा का नाश कैसे हो? हे रामजी! शरीर के नष्ट हुए तुम्हारा नाश नहीं होगा, तुम क्यों मिथ्या शोकवान होते हो? तुम तो नित्य, शुद्ध और शान्तरूप भात्मा हो। हे रामजी! जैसे मेघ के क्षीण हुए पवन बीण नहीं होता और कमलों