पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५५

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उत्पत्ति प्रकरण।

के सूखे से भ्रमर नष्ट नहीं होता तैसे ही देह के नष्ट हुए आत्मा नहीं नष्ट होता। संसार में क्रीडाकर्ता जो मन है उसका संसार में नाश नहीं होता तो आत्मा का नाश कैसे हो? जैसे घट के नाश हुए घटाकाश का नाश नहीं होता। हे रामजी जैसे जल के कुण्ड में सूर्य का प्रतिविम्ब पड़ता है और उस कुण्ड के नाश हुए प्रतिबिम्ब का नाश नहीं होता, यदि उस जल को और ठौर ले जायँ तो प्रतिविम्ब भी चलता भासता है तैसे ही देह में जो आत्मा स्थित है सो देह के चलने से चलता भासता है। जैसे घट के फूटे से घटाकाश महाकाश में स्थित होता है तैसे ही देह के नाश हुए प्रात्मा निरामयपद में स्थित होता है। हे रामजी! सब जीवों का देह मनरूपी है। जब वह मृतक होता है तब कुछ काल पर्यन्त देशकाल और पदार्थ का अभाव हो जाता है और इसके अनन्तर फिर पदार्थ भासते हैं, उस मूर्छा का नाम मृतक है। आत्मा का नाश तो नहीं होता चित्त की मूर्छा से देश, काल और पदार्थों के अभाव होने का नाम मृतक है। हे रामजी! संसारभ्रम का रचनेवाला जो मन है उसका ज्ञानरूपी अग्नि से नाश होता है, प्रात्मसत्ता का नाश कैसे हो? हे रामजी! देश काल और वस्तु से मन का निश्चय विपर्यय भाव को प्राप्त होता है; चाहे अनेक यत्न करे परन्तु ज्ञान विना नष्ट नहीं होता। हे रामजी! कल्पितरूप जन्म का नाश नहीं होता तो जगत् के पदार्थों से आत्मसत्ता का नाश कैसे हो? इसलिए शोक किसी का न करना। हे महाबाहो! तुम तो नित्यशुद्ध अविनाशी पुरुष हो। यह जो सङ्कल्प वासना से तुममें जन्म-मरण आदिक भासते हैं सो भ्रममात्र हैं। इससे इस वासना को त्याग के तुम शुद्ध चिदाकाश में स्थित हो जायो। जैसे गरुड़ पक्षी अण्डा त्याग के आकाश को उड़ता है तैसे ही वासना को त्याग करके तुम चिदाकाश में स्थित हो जाओ। हे रामजी! शुद्ध आत्मा में मनन फुरता है वही मन है, वह मनन शक्ति इष्ट और अनिष्ट से बन्धन का कारण है और वह मन मिथ्या भ्रान्ति से उदय हुआ है। जैसे स्वम द्रष्टा भ्रान्तिमात्र होता है तैसे ही जाग्रत् सृष्टि भ्रान्तिमात्र है। हे रामजी! यह जगत् भविद्या से बन्धनमय और दुःख का कारण