पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५७

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उत्पत्ति प्रकरण।

रामजी! यह मन परम दुःख का कारण है; इससे तुम इस मनरूपी शत्रु को वैराग्य भोर अभ्यासरूपी खड्ग से मारो तव प्रात्मपद को प्राप्त होगे। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब वशिष्ठजी ने कहा तब सायंकाल का समय हुमा और सब श्रोता परस्पर नमस्कार करके अपने अपने स्थान को गये और फिर सूर्य की किरणों के उदय होने पर अपने अपने स्थान पर भा बैठे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मननिर्वाणोपदेशवर्णन
न्नामाष्टसप्ततितमस्सर्गः॥७८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह चित्र भी परमात्मा से उठे हैं। जैसे समुद्र में लीला से जलकणिका होती हैं तैसे ही परमात्मा से मन हुआ है। उस मन ने बड़े विस्तार का जगत् रचा है जो कि छोटे को बड़ा कर लेता है और बड़े को छोटा करता है, जो अपना भाप रूप है उसको अन्य की नाई दिखाता है और जो अन्य रूप है उसको अपना रूप दिखाता है अर्थात् श्रात्मा को अनात्मभाव प्राप्त करता है और अनात्मा को मात्मभाव प्राप्त करता है। ऐसा भ्रान्तिरूप मन निकट वस्तु को दूर दिखाता और दर वस्तु को निकट दिखाता है-जैसे स्वप्ने में निकट वस्तु दूर भासती है और दूर वस्तु निकट भासती है। हे रामजी! मन एक निमेष में संसार को उत्पन्न करता और एक निमेष में ही लीन कर लेता है । जो कुछ स्थावर-जङ्गमरूप जगत् भासता है वह सब मन ही से उपजा है और देश, काल, क्रिया और द्रव्य अनेक शक्ति विपर्ययरूप मन ही दिखाता है और अपने फुरने से नाना प्रकार के भाव प्रभाव को प्राप्त होता है। जैसे नट लीला करके नाना प्रकार के स्वांग रचता और सच को झूठ और झूठ को सच दिखाता है वैसे ही मन में जैसा फुरना दृढ़ होता है वैसे ही भासता है। जैसा जैसा निश्चय चञ्चल मन में होता है उनके अनुसार इन्द्रियाँ भी विचरती हैं। हे रामजी! जो मन से चेष्टा होती है वही सफल होती है, शरीर की चेष्टा मन विना सफल नहीं होती। जैसे जैसा वेल का बीज होता है वैसा ही उसका फल होता है और प्रकार नहीं होता वैसे ही जो कुछ