पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३५९

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उत्पत्ति प्रकरण।

स्वर्णवत् महाकल्पवृक्ष लगे थे। उस देश का लवण नाम राजा अति तेजवान और धर्मात्मा राजा हरिश्चन्द्र के कुल में उपजा। उसका ऐसा तेज हुआ कि शत्रु उसका नाम स्मरण करे तो उसको ताप चढ़ जावे और वह श्रेष्ठ पुरुषों की पालना करे। उस राजा के यश से सम्पूर्ण पृथ्वी पूर्ण हो गई और स्वर्ग में देवता भौर विद्याधर यश गाते थे। उस राजा में लोभ और कुटिलता न थी और वह बड़ा बुद्धिमान भोर उदार था। एक दिन सभा में बड़े ऊँचे सिंहासन पर वह बैठा था और सुन्दर त्रियों का नृत्य होता था, अतिसुन्दर बाजे बजते थे और मधुरध्वनि होती थी। राजा के शीश पर चमर झुलता था और मन्त्री और मण्डलेश्वरों की सेना भागे खड़ी राजा को देशमण्डल की वार्ता सुनाती थी। इतिहास' प्रादि की पुस्तकें ढाँप के उठा रक्खी थीं और भाट स्तुति करते थे। केवल दो मुहूर्त दिन रह गया था उस काल में एक इन्द्रजाली बाजीगर आडम्बर संयुक्त सभा में पाया और राजा से कहने लगा, हे राजन्!, आप मेरा एक कौतुक देखिये। इतना कहकर उसने अपना पिटारा खोला और उसमें से एक मोर की पूँछ निकालकर घुमाने लगा। उससे राजा को नाना प्रकार की रचना भासने लगी-मानो परमात्मा की माया है और नाना प्रकार के रङ्ग राजा ने देखे। उसी क्षण में किसी मण्डलेश्वर का दूत एक घोड़ा लेकर राजा के निकट पाया और बोला, हे राजन्! यह महाबलवान् घोड़ा राजा ने भापको दिया है। जैसे उच्चैःश्रवा इन्द्र का घोड़ा समुद्र मथने से निकला है तैसा ही यह है और इसका पवन के सदृश वेग है। मेरे स्वामी ने कहा है कि जो उत्तम पदार्थ है वह बड़ों को देना चाहिये और यह आपके योग्य है इससे आप इसे प्रहण कीजिये। तब इन्द्रजाली बोला, हे राजन्! आप इस घोड़े पर आरूढ़ हों, इस पर चढ़कर आप शोभा पावेंगे। इतना सुन राजा घोड़े की भोर देख मूञ्छित हो गया और भय से मन्त्री भी उसे न जगावें और उसके हाथ पाँव भी कुछ न हिलें। जैसे कीचड़ में कमल भचल होता है तैसे ही राजा प्रवल हो गया और दो मुहूर्त पर्यन्त मूञ्छित रहा। भाट और कवि जो स्तुति करते थे वे सब चुप हो रहे भोर मन्त्री और नौकर भय