पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६१

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उत्पत्ति प्रकरण।

तूने यह क्या कर्म किया? राजा से भी कोई ऐसा कर्म करता है? जैसे जल विना मबली कष्ट पाके फिर जल में प्रसन्न हो तैसे ही मैं हुआ हूं। बड़ा आश्चर्य है परमात्मा की अनन्त शक्ति है और अनेक प्रकार के पदार्थ फरते हैं। मैंने दो मुहूर्त में क्या ही भ्रम देखा। मेरा मन सदाभान के अभ्यास में था सो तो मोह गया तो पाकृत जीवों का क्या कहना है? मैंने बड़ा आश्चर्य भ्रम देखा है। यह इन्द्रजाली मानों सम्बर देत्य है कि उसने दो मुहूर्त में मुझको अनेक देश, काल और पदार्थ दिखाये। जैसे ब्रह्मा एक मुहूर्त में नाना प्रकार के पदार्थ रच लेवें वैसे ही एक मुहुर्त में इसने मुझको भनेक भ्रम दिखाये हैं। मैं सब तुम्हारे भागे कहता हूँ-मानो सारी सृष्टि इसके पिटारे में है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे राजाप्रबोधोनाम
एकाशीतितमस्सर्गः॥८१॥

राजा बोला, हे साधो! मैं इस पृथ्वी का राजा हूँ और सब पृथ्वी में मेरी भावा चलती है और मैं इन्द्र की नाई सिंहासन पर बैठता हूँ जैसे स्वर्ग में इन्द्र के आगे देवता होते हैं तैसे ही मेरे आगे भृत्य भोर मन्त्री हैं। उदारता से मैं सम्पन्न हूँ पर मैंने बड़ा भ्रम देखा। हे सायो। जब इस इन्द्रजाली ने पिटारे से मोर की पूंछ निकाल कर घुमाई तो वह मुझको सूर्य की किरणों की नाई भासी और जैसे बड़ा मेघ गरज के शान्त हो जाता है और पीछे इन्द्रधनुष दीखता है तैसे ही वह विचित्र रूप स्त्री मुझको दीखी। फिर एक दूत घोड़ा लेकर माया उस पर मैं आरूद हुमा भोर वह चित्त ही से मुभको दूर से दूर ले गया। जैसे भोगों की वासना से मूर्ख घर ही बैठे दूर से दूर भटकते फिरते हैं तैसे ही मुझको वह घोड़ा दूर से दूर ले गया। फिर वह मुझे एक महाभयानक निर्जन देश में ले गया जो प्रलयकाल के जले हुए स्थानों के समान था। वहाँ मानों दूसरा आकाश था और सात समुद्र थे और उनके समान एक आठवाँ समुद्र था। चारों दिशा के जो चार समुद्र वर्णन किये हैं उनके समान वह मानों पांचवाँ समुद्र था निदान वह मुझे महाभयानक स्थानों और देशों को लांघकर एक महावन में ले भाया। जैसे ज्ञानी