पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६२

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योगवाशिष्ठ।

का चित्त आकाशवत् होता है और जैसे अज्ञानी का चित्त कठोर और शून्य होता है वैसे ही स्थान में मुझे ले गया, जहाँ घास, वृक्ष, जीव मनुष्य कोई भी दृष्टि न पाता था वहाँ मैं महाकष्ट और दीनता को प्राप्त हुआ। जैसे धन और बान्धवों से और देश और बल से रहित पुरुष कष्ट पाता है वैसे ही मैं कष्टवान् हुआ। तब दिन का अन्त हो गया और वहाँ उजाड़ में कष्ट से मैंने रात बिताई और पृथ्वी पर सोया परन्तु निद्रा नभाई और दुःख से कल्प समान रात्रि हो गई। जब सूर्य उदय हुआ तब मैं वहाँ से चला और भागे गया तो पक्षियों का शब्द सुना और वृक्ष देखे परन्तु खाने पीने को कुछ न पाया। उन वृक्षों को देखके में प्रसन्न हुआ-जैसे मृत्यु से छुटा पुरुष रोग से भी प्रसन्न हो-और एक जामुन के वृक्ष के नीचे बैठ गया-जैसे मार्कण्डेय ऋषि ने प्रलय के समुद्र में भ्रमकर वट का आश्रय लिया था। तब वह घोड़ा मुझको छोड़ के चला गया और सूर्य अस्त हुआ तो मैंने वहाँ रात्रि विताई परन्तु न कुछ भोजन किया और न जलपान किया और न स्नान ही किया। इससे मैं महादीन हुमा। जैसे कोई विका मनुष्य दीन हो जाता है और जेसे अन्धकूप में गिरा मनुष्य कष्टवान होता है तैसे ही मैं कष्टवान हुआ भोर कल्प के समान रात्रि वीती। जब वहाँ अन्न पानी कुछ दृष्टि न पाया तब मैं भागे गया जहाँ पक्षी शब्द करते थे। उस समय प्राधा पहर दिन रह गया था तब एक कन्या मुझे दिखाई दी जो अपने हाथ में मृत्तिका की एक मटका में पके हुए चावल और जांबू के रस का भरा हुधा पात्र लिए जाती थी। मैं उसके सम्मुख भाया-जैसे रात्रि के सम्मुख चन्द्रमा पाता है और कहा कि हे बाले! मुझको भोजन दे, मैं क्षुधा से आतुर हूँ। जो कोई दीन मार्ग को अन्न देता है वह बड़ी सम्पदा पाता है। हे साधो! जब मैंने बारम्बार कहा तब उसने कहा तुम तो कोई राजा भासते हो कि नाना प्रकार के भूषण वन पहिने हुए हो, मैं तुम को भोजन न दूँगी। ऐसे कह के वह भागे चली और में भी उसके पीछे जैसे छाया जावे तैसे चखा। मैं कहता जाता था कि हे वाले। मुझे भोजन दे कि मेरी क्षुधा शान्त हो और व कहती, हे राजन्। हम नीच