पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६४

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योगवाशिष्ठ।

वहाँ रहके फिर में और स्थानों में रहा। निदान वह चाण्डाली गर्भवती हुई और उससे एक कन्या उत्पन्न हुई जो शीघ्र ही बढ़ गई। तीन वर्ष पीछे एक बालक उत्पन्न हुआ और फिर एक पुत्र और एक कन्या और भी उत्पन्न हुई। इसी प्रकार उससे तीन पुत्र और तीन कन्या उत्पन्न हुई और मैं एक बड़ा परिवारवान चाण्डाल हुमा। उस चाण्डाली सहित मैं चिरकाल पर्यन्त चाण्डालों में विचरता रहा और जैसे जाल में पक्षी बँध जाता है तैसे मैं उनमें बन्धवान हुआ। हे साधो! उनमें मैंने बड़े कष्ट पाये, प्रथम जिस शिर में रेशम का वस भी चुभता था उस पर में भार उठाऊँ; नीचे नंगे चरण जलें और शिर पर सूर्य तपें। रात्रि को मैं काँटों पर सोऊँ, कोई वन न मिले और जीव जन्तुओं के लोहू से भरे हुए और गीले पुराने कपड़े शिरहाने रक्खू। कुक्कुट, हस्ती आदिक अशुचि पदार्थों का भोजन करूँ और उनके रुधिर का पान करूं। ऐसी मेरी चेष्टा हो गई कि जाल से पक्षी मारूँ, बंसी से मच्छ कच्छ आदिक पकड़ें, अनेक प्रकार के क्रूर नीच कर्म करूँ और जैसी कैसी वस्तु मिले उसे भोजन करूँ, निदान ऐसी व्यवस्था हो गई कि अस्थि मांस के निमित्त हम मापस में और शीतकाल में शीत से उष्णकाल में उष्णता से कष्टवान् हों। इससे मेरा शरीरबहुत कृश हो गया और अवस्था भी वृद्ध हुई, मशानों में हमारा बहुत काल व्यतीत हुआ और मांस और रक्त पान करते रहे। जो हस्ती मादिक पशुभावें उनको हम मारे-जैसे चण्डिकाने दैत्यों को माराथा भौर उनकी भाँतड़ें और चमड़े तले विबाके सोवें और शिरहाने रक्खें। ऐसे ही चिरकाल पर्यन्त हम चेष्टा करते रहे और बन्धुनों में बहुत स्नेह बढ़ गया पर वर्षाकाल की नदी की नाई हमारी तृष्णा बढ़ती जाती थी। जिन मृत्तिका के पात्रों में चाण्डाल भोजन कर जाते थे उन्हीं वासनों में हम भी भोजन करते थे। कालवशात् वर्षा वन्द हो गई और अकाल पड़ा, सूर्य ऐसे तपने लगे मानों दादश सूर्य इकट्ठे तपते हैं और दावाग्नि वन में लगी है। वन के जीव अन्न जल के निमित्त कष्ट पाने लगे और अपना देश छोड़ के देशान्तर जाने लगे। निदान महा उपद्रव हुमा, समय विना ही मानों प्रलय आया है तब सुधा और तृषा से कितने जीव मृतक हो गये,