पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६६

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योगवाशिष्ठ।

है। जब इन्द्रजाली ने पूँछ घुमाई थी तब उसके सामने मैं घोड़े पर आरूढ़ हुआ था और इतने काल प्रत्यक्ष भ्रम देखता रहा। बड़ा आश्चर्य है कि मेरे से विवेकवान् राजा को इसने मोहित किया तो और प्राकृत जीवों की क्या वार्ता है। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार तेजवान् राजा ने कहा तब वह साम्बरीक अन्तर्धान हो गया और सभा में जो मन्त्री आदि बैठे थे सब आश्चर्यवान हुए और परस्पर देखके कहने लगे बड़ा आश्चर्य है! बड़ा आश्चर्य है!! भगवान की माया विचित्ररूप है। यह साम्बरी माया नहीं है, क्योंकि साम्बरी अपने लोभ के निमित्त तमाशा दिखाता है पीछे यत्न से धन आदिक पदार्थ माँगता है, पर यह लिये विना ही अन्तर्धान हो गया। यह ईश्वर की माया है जिससे ऐसा विवेकवान राजा मोह गया। जो ऐसा बड़ा तेजवान और शूरमा राजा मोहित हुमा तो सामान्य जीवों की क्या वार्ता है? हे रामजी! ऐसे संदेहवान होकर सब स्थित हुए और मैं भी उस सभा में बैठा था। यह वृत्तान्त मैंने प्रत्यक्ष देखा है किसी के मुख से सुनके नहीं कहा। हे रामजी! यह जो अणुरूप मन है सो महामोह और अविद्या है। इसके फुरने से अनेक प्रकार का मोह दीखता है। जब यह मन उपशम हो तभी कल्याण है। इससे इस मन में जो बहुत कल्पना उठती हैं उनको त्यागकर आत्मपद में स्थित करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे साम्बरोपाख्यानसमाप्ति
वर्णनन्नाम चतुरशीतितमस्सर्गः॥८४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आदि जो शुद्ध परमात्मा से चित्तसंवेदन फुरा है वह कलनारूप होके स्थित हुआ है, उसी से दृश्य सत्य हो भासता है। आत्मा के प्रमादसे मोह में प्राप्त हुआ है ओर चित्त के फुरने से चिरपर्यन्त जगत् में मग्न हो रहा है। वह मन असत्यरूप है और उस मन में ही सम्पूर्ण जगत् विस्तारा है जिससे अनेक दुःखों को प्राप्त हुआ है। जैसे बालक अपनी परछाही में वैताल कल्पकर आपही भयवान होता है। वही मन जब संसार की वासना को त्यागकर आत्मपद में स्थित होता है तब जैसे सूर्य की किरणों से अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही एक क्षण में सब