पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६७

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उत्पति प्रकरण।

दुःख नष्ट हो जाते हैं। हे रामजी! ऐसा पदार्थ कोई नहीं जो अभ्यास किये से पास न हो। इससे जब आत्मपद का अभ्यास कीजियेगा तब वह प्राप्त होगा। आत्मपद के अभ्यास किये से आत्मा निकट भासता है भोर संसार दूर भासता है। जब जगत् का अभ्यास दृढ़ होता है तब जगत् निकट भासता है और आत्मा दूर भासता है। हे रामजी! जो मूर्ख मनुष्य है उसको अभयपद में भय होता है। जैसे पथिक को दूर से वृक्ष में वैताल कल्पना होती है भोर भय पाता है वैसे ही चित्त की वासना से जीव भय पाता है। हे रामजी! वासना सहित मलीन मन में नाना प्रकार संसार भ्रम उठता है और जब आत्मपद में स्थित होता है तब भ्रम मिट जाता है। जैसा मन में निश्चय होता है तैसा ही हो भासता है, यदि मित्र में शत्रु बुद्धि होती है तो निश्चय करके वह शत्रु हो जाता है और मद से उन्मत्त हो सम्पूर्ण पृथ्वी भ्रमती दीखती है और व्याकुल होता है तो चन्द्रमा भी श्याम सा भासता है जो अमृत में विष की भावना होती है तो अमृत भी विष की नाई भासता है। यह जाग्रत पदार्थ देश, काल और क्रिया मन से भासते हैं। हे रामजी! संसार का कारण मोह है, उससे जीव भटकता है। इसलिये ज्ञानरूपी कुल्हाड़े से वासनारूपी मलीनता को काटो, आत्मपद पाने में वासना ही आवरण है। हे रामजी! वासनारूपी जाल में मनुष्यरूपी हरिण फंसकर संसाररूपी वन में भटकता है। जिस पुरुष ने विचार करके वासना नष्ट की है उसको परमात्मा का प्रकाश भासता है। जैसे बादल से रहित सूर्य प्रकाशित होता है तेसे ही वासना रहित चित्त में भात्मा प्रकाशता है। हे रामजी! मन ही को तुम मनुष्य जानो, देह को मनुष्य न जानना क्योंकि देह जड़ है और मन जड़ भोर चेतन से विलक्षण है मन से किया हुआ कार्य सफल होता है। जो मन से दिया और जो मन से लिया है वही दिया भोर लिया है और जो देह से किया है वह भी मन ने ही किया है। हे रामजी! यह सम्पूर्ण जगत् मनरूप है। मन ही पर्वत, आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी है सूर्यादिकों का प्रकाश मन ही से होता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध सब मन ही से ग्रहण होते हैं और नाना