पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६९

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उत्पति प्रकरण।

कुब स्वाद नहीं आता और नेत्रों से चित्त सहित देखता है तो रूप का ज्ञान होता है, इस कारण मन बिना किसी इन्द्रिय का उपाय सिद्ध नहीं होता और अन्धकार और प्रकाश भी मन विना नहीं भासते। हे रामजी! सब पदार्थ मन से भासते हैं। जैसे नेत्रों में प्रकाश नहीं होता तो कुछ नहीं भासता तैसे ही विद्यमान पदार्थ भी मन बिना नहीं भासते। हे रामजी! इन्द्रियों से मन नहीं उपजा परन्तु मन से इन्द्रियाँ उपजी हैं और जो कुछ इन्द्रियों का विषय दृश्य जाल है वह सब मन से उपजा है। जिन पुरुषों ने मन वश किया है वही महात्मा पुरुष पण्डित हैं और उनको नमस्कार है। हे रामजी! यदि नाना प्रकार के भूषण और फूल पहिरे हुए स्त्री प्रीति से कण्ठ लगे पर जो चित्त आत्मपद में स्थित है तो वह मृतक के समान है अर्थात् उसको इष्ट अनिष्ट का राग-द्वेष कुछ नहीं उपजा। इष्ट अनिष्ट में राग-द्वेष मन ही उपजाता है, मन के स्थित हुए राग-द्वेष कुछ नहीं उपजता। हे रामजी! एक वीतराग बाह्मण ध्यान स्थित वन में बैठा था और उसके हाथ को कोई वनचर जीव तोड़ ले गया परन्तु उसको कुछ कष्ट न हुआ क्योंकि मन उसका स्थिर था। यही मन फुरने से सुख को भी दुःख करता है और अपने में स्थित हुए दुःख को भी सुख करता है। हे रामजी! कथा के सुनने में जो मन किसी और चिन्तवन में जाता है तो कथा के अर्थ समझ में नहीं आते और जो अपने गृह में बैठा है और मन के संकल्प से पहाड़ पर दौड़ता-दौड़ता गिर पड़ता है तो उसको प्रत्यक्ष अनुभव होता है, सो मन का ही भ्रम है । जैसी फुरना मन में फुरती है वही भासती है। जैसे स्वप्न में एक क्षण में नदी, पहाड़ आकाशादिक पदार्थ भासने लगते हैं तेसे ही यह पदार्थ भी भासते हैं। हे रामजी! अपने अन्तःकरण में सृष्टि भी मन के भ्रम से भासती है। जैसे जल के भीतर अनेक तरङ्ग होते हैं और वृक्ष में पत्र, फूल, फल टास होते हैं तैसे ही एक मन के भीतर जाग्रत्, स्वप्न आदिक भ्रम होते हैं जैसे सुवर्ण से भूषण अन्य नहीं होते तैसे ही जाग्रत् और स्वप्नावस्था भिन्न नहीं। जैसे तरङ्ग और बुबुदे जल से भिन्न नहीं और जैसे नटवा नाना प्रकार के स्वाँगों को लेकर