पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७

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वैराग्य प्रकरण।

जैसे राख में आहुति धरी व्यर्थ हो जाती है वैसे ही मैं इसे जानता हूँ। जितने दुःख हैं उनका बीज अहङ्कार है। जब इसका नाश हो तब कल्याण हो। इससे आप उसकी निवृत्ति का उपाय कहिए। हे मुनीश्वर! जो वस्तु सत्य है इसके त्याग करने में दुःख होता है और जो वस्तु नाशवान् है और भ्रम से दीखती है उसके त्याग करने में आनन्द है। शान्तिरूप चन्द्रमा के आच्छादन करने को महङ्काररूपी राहु है। जब राहु चन्द्रमा को ग्रहण करता है तब उसकी शीतलता और प्रकाश ढक जाता है वैसे ही जब अहङ्कार बढ़ जाता है तब समता ढक जाती है। जब अहङ्काररूपी मेघ गरजके वर्षता है तब तृष्णारूपी कण्टकमञ्जरी बढ़ जाती है और कभी नहीं घटती। जब अहङ्कार का नाश हो तब तृष्णा का आभाव हो। जैसे जब तक मेघ है तब तक बिजली है; जब विवेकरूपी पवन चले तब अहङ्काररूपी मेघ का अभाव होकर तृष्णारूपी बिजली नष्ट हो जाती है और जैसे जब तक तेल और बाती है तब तक दीपक का प्रकाश है जब तेल बाती का नाश होता है तब दीपक का प्रकाश भी नष्ट हो जाता है वैसे ही जब अहङ्कार का नाश हो तब तृष्णा का भी नाश होता है। हे मुनीश्वर! परम दुःख का कारण अहङ्कार है। जब अहङ्कार का नाश हो तब दुःख का भी नाश हो जाय। हे मुनीश्वर! यह जो मैं राम हूँ सो नहीं और इच्छा भी कुछ नहीं, क्योंकि मैं नहीं तो इच्छा किसको हो? और इच्छा हो तो यही हो कि अहङ्कार से रहित पदकी प्राप्ति हो। जैसे जनेन्द्र को अहङ्कार का उत्थान नहीं हुमा वैसा मैं होऊँ ऐसी मुझको इच्छा है। हे मुनीश्वर! जैसे कमल को बरफ नष्ट करता है वैसे ही अहङ्कार ज्ञान का नाश करता है। जैसे व्याध जाल से पक्षी को फंसाता है और उससे पक्षी दीन हो जाते हैं वैसे ही अहङ्काररूपी व्याधने तृष्णारूपी जाल डालकर जीवों को फँसाया है उससे वह महादीन हो गये हैं जैसे पक्षी मन्त्र के दाने सुख रूप जानकर चुगने पाता है फिर चुगते चुगते जाल में फँस बन्धन से दीन हो जाता है वैसे ही यह जीव विषयभोग की इच्छा करने से तृष्णारूपी जाल में फँसकर महादीन हो जाता है। इससे हे मुनीश्वर! मुझसे