पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७०

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योगवाशिष्ठ।

अनेकरूप धरता है तैसे ही मन वासना से अनेक रूप धारता है। हे रामजी! जैसा स्पन्द में दृढ़ होता है तैसा ही अनुभव होता है। जैसे लवण राजा को भ्रम से चाण्डाली का अनुभव हुआ था तैसे ही यह जगत् का अनुभव मनोमात्र है, चित्त के भ्रम से भासता है। हे रामजी! जैसी-जैसी प्रतिमा मन में होती है तैसा ही तैसा अनुभव होता है और यह सम्पूर्ण जगत् मनोमात्र है। अब जैसे तुम्हारी इच्छा हो वैसे करो। जैसा जैसा फुरना मन में होता है तैसा-तैसा ही भासता है। मन के फुरने से देवता दैत्य और दैत्य देवता हो जाते हैं और मनुष्य नाग भौर वृक्ष हो जाते हैं जैसे लवण राजा ने आपदा का अनुभव किया था। हे रामजी! मन के फुरने से ही मरना और जन्म होता है और संकल्प से ही पुरुष से स्त्री और स्त्री से पुरुष हो जाता है। पिता पुत्र हो जाता है और पुत्र पिता हो जाता है। जैसे नटवा शीघ्र ही अपने स्वाँग से अनेक रूप धरता है तैसे ही अपने संकल्प से मन भी अनेक रूप धरता है। हे रामजी! जीव निराकार है, पर मन से आकार की नाई भासता है। उस मन में जो मनन है वही मूढ़ता है, उस मूढ़ता से जो वासना हुई है उस वासनारूपी पवन से यह जीवरूपी पत्र भटकता है और संकल्प के वश हुआ सुख-दुःख और भय को प्राप्त होता है। जैसे तेल तिलों में रहता है तैसे ही सुख दुख मन में रहते हैं। जैसे तिलों को कोल्हू में पेरने से तेल निकलता है तैसे ही मन को पदार्थों के संयोग से सुख-दुःख प्रकट भासते हैं। संकल्प से काल-क्रिया में दृढ़ता होती है और देश काल आदिक भी मन में स्थित होते हैं। जिनका मन फुरता है उनको नाना प्रकार का बोभज्ञान जगत् भासता है। हे रामजी! जिनका मन आत्मपद में स्थित है उनको क्षोभ भी दृष्ट पाता परन्तु मन आत्मपद से चलायमान नहीं होता। जेसे घोड़े का सवार रण में जा पड़ता है तो भी घोड़ा उसके वश रहता है तैसे ही उसका मन जो विस्तार की ओर जाता है तो भी अपने वश ही रहता है। हे रामजी! जब मन की चपलता वैराग से दूर होती है तब मन वश हो जाता है। जैसे बन्धनों से हस्ती वश होता है तैसे ही जिस पुरुष का मन वश होता है