पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७३

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उत्पत्ति प्रकरण।

तुम मुक्त होगे तब तुम्हारी बुद्धि परमार्थतत्त्व में लगेगी अर्थात् बोधरूप हो जावेगी। इससे इस चित्त को चित्त से पास कर लो, जब तुम परम पुरुषार्थ करके चित्त को अचित्त करोगे तब महा अद्वैतपद को प्राप्त होगे। हे रामजी! मन के जीतने में तुमको और कुछ यत्न नहीं, केवल एक संवेदन का प्रवाह उलटना है कि दृश्य की ओर से निवृत्त करके आत्मा की ओर लगाओं, इसी से चित्त अचित्त हो जावेगा। चित्त के क्षोभ से रहित होना परम कल्याण है, इससे क्षोभ से रहित हो जाओं। जिसने मन को जीता है उसको त्रिलोकी का जीतना तृण समान है। हे रामजी! ऐसे शरमा हैं जो कि शत्रों के प्रहार सहते हैं, अग्नि में जलना भी सहते हैं और शत्रु को मारते हैं तब स्वाभाविक फुरने के सहने में क्या कृपणता है? हे रामजी! जिनको अपने चित्त के उलगने की सामर्थ्य नहीं वे नरों में अधम हैं। जिनको यह अनुभव होता है कि मैं जन्मा हूँ मैं मरूँगा और मैं जीव हूँ, उनको वह असत्यरूप प्रमाद चपलता से भासता है। जैसे कोई किसी स्थान में बैठा हो और मन के फुरने से और देश में कार्य करने लगे तो वह भ्रमरूप है तैसे ही आपको जन्ममरण भ्रम से मानता है। हे रामजी! मनुष्य मनरूपी शरीर से इस लोक और परलोक में मोक्ष होने पर्यन्त चित्त में भटकता है। यदि चित्त स्थिर है तो तुमको मृत्यु का भय कैसे होता है? तुम्हारा स्वरूप नित्य शुद्धबुद्ध और सर्वविकार से रहित है। यह लोक आदिक भ्रम मन के फुरने से उपजा है, मन से भिन्न जगत् का कुछ रूप नहीं। पुत्र, भाई, नौकर आदिक जो स्नेह के स्थान हैं और उनके क्लेश से आपको क्लेशित मानते हैं वह भी चित्त से मानते हैं। जब चित्त अचित्त हो जावे तब सर्व बन्धनों से मुक्त हो। हे रामजी! मैंने अधःऊर्ध्व सर्वस्थान देखे हैं, सब शास्त्र भी देखे हैं और उनको एकान्त में बैठकर बारम्बार विचारा भी है शान्त होने का और कोई उपाय नहीं, चित्त का उपशम करना ही उपाय है। जब तक चित्त दृश्य को देखता है तब तक शान्ति प्राप्त नहीं होती और जब चित्त उपशम होता है तब उस पद में विश्राम होता है जो नित्य, शुद्ध, सर्वात्मा और सबके हृदय में चैतन आकाश परम