पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७५

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उत्पत्ति प्रकरण। ३६९

वह मन संकल्प से रहित नष्ट हो जाता है और संकल्प के बढ़ने से अनर्थ का कारण होता है। इससे संकल्प से रहित उस चक्रवर्ती राजापद में आरूढ़ हुआ परमपद को प्राप्त होगा जिस पद में स्थित होने से चक्रवर्ती राज तृणवत् भासता है। हे रामजी! मन के क्षीण होने से जीव उत्तम परमानन्द पद को प्राप्त होता है। हे रामजी! सन्तोष से जब मन वश होता है तब नित्य, उदयरूप, निरीह, परमपावन, निर्मच, सम, अनन्त और सर्वविकार विकल्प से रहित जो आत्मपद शेष रहता है वह तुमको प्राप्त होगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मनशक्तिरूपपीतपादनन्नाम
षडशीतितमस्सर्गः॥८६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिसके मन में तीव्र संवेग होता है उसको मन देखता है। अज्ञान से जो दृश्य का तीन संवेग हुआ है उससे चित्त जन्म-मरणादिक विकार देखता है और जैसा निश्चय मन में दृढ़ होता है उसी का अनुभव करता है, जैसा मम का फुरना फुरता है तेसा ही रूप हो जाता है। जैसे वरफ का शीतल और शुक्ल रूप है और काजल का कृष्ण रूप है, तैसे ही मन का चञ्चल रूप है। इतना सुन रामजी ने पूला, हे ब्रह्मन्! यह मन जो वेग अवेग का कारण चञ्चल रूप है उस मन की चपलता कैसे निवृत्त हो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तुम सत्य कहते हो, चञ्चलता से रहित मन नहीं दीखता; क्योंकि मन का चञ्चल स्वभाव ही है। हे रामजी! मन में जो चञ्चलता फुरना मानसी शक्ति है वही जगत्माडम्बर का कारणरूप है। जैसे वायु का स्पन्द रूप है तेसे ही मन का चञ्चल रूप है। जिसका मन चञ्चलता से रहित है उसको मृतक कहते हैं। हे रामजी! तप और शास्त्र का जो सिद्धान्त है वह यही है कि मन के मृतकरूप को मोक्ष कहते हैं, उसके क्षीण हुए सब दुःख नष्ट हो जाते हैं। जब चित्तरूपी राक्षस उठता है तब बड़े दुःख को प्राप्त होता है और चित्त के लय होने से अनन्त सुखभोग प्राप्त होते हैं अर्थात् परमानन्दस्वरूप आत्मपद प्राप्त होता है। हेरामजी! मन में चश्चलता अविचारसे सिद्ध है और विचार से नष्ट हो जाती है। चित्त की चञ्चलतारूप