पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७६

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योगवाशिष्ठ।

जो वासना भीतर स्थित है जब वह नष्ट हो तब परमसार की प्राप्ति हो, इससे यत्न करके चपलतारूपी भविद्या का त्याग करो। जब चपलता निवृत्त होगी तब मन शान्त होगा। सत्य, असत्य और जड़, चेतन के मध्य जो डोलायमान शक्ति है उसका नाम मन है। जब यह तीव्रता से जड़ की ओर लगता है तब आत्मा के प्रमाद से जड़रूप हो जाता है, अर्थात् अनात्म में आत्मप्रतीति होती है और जब विवेक विचार में लगता है तब उस अभ्यास से जड़ता निवृत्त हो जाती है और केवल चेतन आत्मतत्त्व भासता है। जैसा अभ्यास दृढ़ होता है तैसा ही अनुभव इसको होता है और जैसे पदार्थ की एकता चित्त में होती है अभ्यास के वश से तैसा ही रूप चित्त का हो जाता है। हे रामजी! जिस पद के निमित्त मन प्रयत्न करता है उस पद को प्राप्त होता है और अभ्यास की तीव्रता से आवितरूप हो जाता है। इसी कारण तुमसे कहता हूँ कि चित्त को चित्त से स्थिर करो और अशोकपद का आश्रय करो। जो कुछ भाव अभाव रूप संसार के पदार्थ हैं वे सब मन से उपजे हैं, इससे मन के उपशम करने का प्रयत्न करो, मन के उपशम विना छूटने का और कोई उपाय नहीं और मन को मन ही निग्रह करता है और कोई नहीं कर सकता। जैसे राजा से राजा ही युद्ध करता है और कोई नहीं कर सकता तैसे ही मन से मन ही युद्ध करता है। इससे तुम मन ही से मन को मारो कि शान्ति को प्राप्त हो। हे रामजी! मनुष्य बड़े संसार समुद्र में पड़ा है जिसमें तृष्णारूपी सिवार ने इसको घेर लिया है, इस कारण अघः को चला जाता है और राग, द्वेषरूपी भँवर में कष्ट पाता है। उससे तरने के निमित्तमन रूपी नाव है, जब शुद्ध मनरूपी नाव पर आरूढ़ हो तब संसार समुद्र के पार उतरे अन्यथा कष्ट को प्राप्त होता है। हे रामजी! अपना मन ही बन्धन का कारण है; उस मन को मन ही से छेदन करो और दृश्य की ओर जो सदा धावता है उससे वैराग्य करके आत्मतत्त्व का अभ्यास करो तब छटोगे, और उपाय छूटने का नहीं। जहाँ जैसी वासना से मन आशा करके उठे उसको वहीं बोध करके त्यागने से तुम्हारी भविद्या नष्ट हो जावेगी। हे रामजी! जब प्रथम भोगों की वासना का त्याग करोगे तब