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उत्पत्ति प्रकरण।

यत्न बिना ही जगत् की वासना छूट जावेगी। जब भाव रूप अभाव जगत् का त्याग किया तब निर्विकल्प सुखरूप होगा। जब सब दृश्य भाव पदार्थों का प्रभाव होता है तब भावना करनेवाला मन भी नष्ट होता है। हे रामजी! जो कुछ संवेदन फुरता है उस संवेदन का होना ही जगत् है और असंवेदन होने का नाम निर्वाण है संवेदन होने से दुःख है, इससे प्रयत्न करके संवेदन का प्रभाव ही कर्तव्य है। जब भावना की आभावना हो तब कल्याण हो। जो कुछ भाव प्रभाव पदार्थों का राग द्वैष उठता है वह मन के अबोध से होता है पर वे पदार्थ मृगतृष्णा के जलवत् मिथ्या हैं। इससे इनकी आस्था को त्याग करो, ये सब अवस्तुरूप हैं और तुम्हारा स्वरूप नित्य तृप्त अपने आपमें स्थित है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सुखोपदेशवर्णनन्नाम
सप्तशीतितमस्सर्गः॥८७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह वासना भ्रान्ति से उठी है। जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा भ्रान्ति से भासता है। तैसे ही आत्मा में जगत् भ्रान्ति से भासता है—इसकी वासना दूर से त्याग करो। हे रामजी! जो ज्ञानवान हैं उनको जगत् नहीं भासता और जो अज्ञानी हैं उनको अविद्यमान ही विद्यमान भासता है और संसार नामसे संसार को अङ्गीकार करता है। ज्ञानवान सम्यकदर्शी को आत्मतत्त्व से भिन्न सब अवस्तुरूप भासता है। जैसे समुद्र द्रवता से तरङ्ग और बुबुदे होके भासता है परन्तु जल से भिन्न कुछ नहीं तैसे ही अपने ही विकल्प से भाव अभावरूपजगत् देखता है, जो वास्तव में असत्यरूप है, क्योंकि आत्मतत्त्व ही अपने स्वरूप में स्थित है। जो नित्य, शुद्ध सम और अद्वैत तुम्हारा अपना आप है, न तुम कर्ता हो, न अकर्ता हो, कर्ता और भकर्ता, ग्रहण-त्याग भेद को लेकर कहाता है। दोनों विकल्पों को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो और जो कुछ क्रिया आचार आ प्राप्त हों उनको करो पर भीतर से अनासक्त रहो अर्थात् अपने को कर्त्ता और भोक्ता मत मानो क्योंकि कर्तव्य आदिक तब होते हैं जब कुछ ग्रहण वा त्याग करना होता हैं और ग्रहणत्याग तब होता है जब पदार्थ सत्य भासते हैं, पर ये सब पदार्थ तो