पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२
योगवाशिष्ठ।

वही उपाय कहिये जिससे अहङ्कार का नाश हो। जब अहङ्कार का नाश होगा तब मैं परमसुखी हूँगा। जैसे विन्ध्याचल पर्वत के आश्रय से उन्मत्त हस्ती गर्जते हैं वैसे ही अहङ्काररूपी विन्ध्याचल पर्वत के आश्रय से मनरूपी उन्मत्त हस्ती नाना प्रकार के सङ्कल्प विल्परूपी शब्द करता है। इससे आप वही उपाय कहिये जिससे प्रकार का नाश हो जो कल्याण का मूल है। जैसे मेघ का नाश करनेवाला शरत्काल है वैसे ही वैराग्य का नाश करनेवाला अहङ्कार है। मोहादिक विकाररूप सों के रहने का अहङ्काररूपी बिल है और वह कामी पुरुषों की नाई है। जैसे कामी पुरुष काम को भोगता है और छल की माला गले में गलके प्रसन्न होता है वैसे ही तृष्णारूपी तागा है और मनरूपी फूल हैं सो तृष्णारूपी तागे के साथ गुहे हैं सो अहङ्काररूपी कामी पुरुष उनको गले में डालता है और प्रसन्न होता है। हे मुनीश्वर! आत्मारूपी सूर्य है उसका भावरण करनेवाला मेघरूपी अहङ्कार है। जब बानरूपी शरत्काल भाता है तब अहङ्काररूपी मेघ का नाश हो जाता है और तृष्णारूपी तुषार का भी नाश होता है। हे मुनीश्वर! यह निश्चय कर मैंने देखा है कि जहाँ अहङ्कार है वहाँ सब आपदाएँ आकर प्राप्त होती हैं जैसे समुद्र में सब नदी आकर प्राप्त होती हैं वैसे ही अहङ्कार से सब आपदाओं की प्राप्ति होती है। इससे आप वही उपाय कहिये जिससे अहङ्कार का नाश हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्य प्रकरणे अहङ्कारदुराशावर्णनन्नाम
दशमस्सर्गः॥१०॥

श्रीरामजी बोले हे मुनीश्वर! मेरा चित्त काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णादिक दुःख से जर्जरीभूत हो गया है और महापुरुषों के गुण जो वैराग्य, विचार, धैर्य और सन्तोष हैं उनकी ओर नहीं जाता-सर्वदा विषय की गरद में उड़ता है। जैसे मोर का पंख पवन में नहीं ठहरता वैसे ही यह चित्त सर्वदा भटका फिरता है पर कुछ लाभ नहीं होता। जैसे श्वान दार द्वार पर भटकता फिरता है वैसे ही यह वित्त पदार्थों के पाने के निमित्त भटकता फिरता है पर प्राप्त कुछ नहीं होता और जो कुछ प्राप्त होता है उससे तृप्त नहीं होता बल्कि अन्तःकरण में तृष्णा बनी