पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८२

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योगवाशिष्ठ।

अन्धा किया है अर्थात् संसारी लोग असवरूप पदार्थों को सत् जान के यत्न करते हैं। जैसे सूर्य के प्रकाश में उल्लू को अन्धकार भासता है और भ्रान्ति से सूर्य उसको नहीं भासता। वैसे ही चिदानन्द आत्मा सदा अनुभव से प्रकाशता है और अविद्या से नहीं भासता। असत्यरूप अविद्या ने जगत् को अन्धा किया है, जो विकर्मों को कराती है और विचार करने से नहीं रहती, उससे अपना आप नहीं भासता और बड़ा आश्चर्य है कि धैर्यवान धर्मात्मा को भी अपने वश करके समर्थ होने नहीं देती। विचार सिद्ध अविद्यारूपी स्त्री ने पुरुषों को अन्धा किया है ओर अनन्त दुःखों का विस्तार फैलाती है, यह उत्पत्ति और नाश सुख और दुःख को कराती है, आत्मा को भासती है, अनन्त दुःख अज्ञान से दिखाती है, बोध से हीन कराती है और काम, क्रोध उपजाती है और मन में वासना से यही भावना वृद्धि करती है। हे रामजी! यह अविद्या निराकाररूप है और इसने जीव को बाँधा है। जैसे स्वप्न में कोई आपको बँधा देखे वैसी ही अविद्या है। स्वरूप के प्रमाद का ही नाम अविद्या है और कुछ नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे अविद्यावर्णनन्नाम
अष्टशीतितमस्सर्गः॥८८॥

इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन! जो कुछ जगत् दीखता है वह सब यदि अविद्या से उपजा है तो वह निवृत्त किस भाँति होती है? वशिष्ठजी बोले हे रामजी! जैसे बरफ की पुतली सूर्य के तेज से क्षण में नष्ट हो जाती है वैसे ही आत्मा के प्रकाश से अविद्या नष्ट हो जाती है। जब तक आत्मा का दर्शन नहीं होता तब तक अविद्या मनुष्य को भ्रम दिखाती है और नाना प्रकार के दुःखों को प्राप्त कराती है, पर जब आत्मा के दर्शन की इच्छा होती है तब वही इच्छा मोह का नाश करती है। जैसे धूप से छाया क्षीण हो जाती है वैसे ही आत्मपद की इच्छा से अविद्या क्षीण हो जाती है और सर्वगत देव आत्मा के साक्षारकार होने से नष्ट हो जाती है। हे रामजी! दृश्य पदार्थों में इच्छा उपजने का नाम अविद्या है और उस इच्छा के नाश का नाम विद्या है। उस विद्या ही