पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८३

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उत्पत्ति प्रकरण।

का नाम मोक्ष है। अविद्या का नाश भी संकल्पमात्र है। जितने दृश्य पदार्थ हैं उनकी इच्छा न उपजे और केवल चिन्मात्र में चित्त की वृत्ति स्थित हो—यही विद्या के नाश का उपाय है। जब सब वासना निवृति हों तब आत्मतत्त्व का प्रकाश होवे। जैसे रात्रि के क्षय होने से सूर्य प्रकाशता है वैसे ही वासना के क्षय होने से प्रात्मा प्रकाशता है। जैसे सूर्य के उदय होने से नहीं विदित होता कि रात्रि कहाँ गई वैसे ही विवेक के उपजे नहीं विदित होता कि भविद्या कहाँ गई। हे रामजी! मनुष्य संसार की दृढ़ वासना में बँधा है। और जैसे संध्याकाल में मूर्ख बालक परछाही में वैताल कल्पकरभयवान होता है वैसे ही मनुष्य अपनी वासना से भय पाता है। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह सब दृश्य अविद्या से हुआ है और अविद्या आत्मभाव से नष्ट होती है तो वह आत्मा कैसा है? वशिष्ठजी बोले, चैत्योन्मुखत्व से रहित और सर्वगत समान और अनुभव रूप जो शब्दरूप चेतन तत्त्व है वह आत्मा परमेश्वर है। हे रामजी! ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त जगत् सब आत्मा है और अविद्या कुछ नहीं। हे रामजी! सब देहों में नित्य चेतनधन भविनाशी पुरुष स्थित है, उसमें मनो नाम्नी कल्पना अन्य की नाई आभास होकर भासती है, पर आत्मतत्त्व से भिन्न कुच नहीं। हे रामजी! कोई न जन्मता है, न मरता है और न कोई विकार है, केवल आत्मतत्त्व प्रकाश सत्तासमान, अविनाशी, चैत्य से रहित, शुद्ध, चिन्मात्रतत्त्व अपने आपमें स्थित है अनित्य, सर्वगत, शुद्ध, चिन्मात्र, निरुपद्रव, शान्तरूप, सत्तासमान निर्विकार देत आत्मा है। हे रामजी! उस एक सर्वगत देव, सर्वशक्तिमहात्मा में जब विभागकलना शक्ति प्रकट होती है तो उसका नाम मन होता है। जैसे समुद्र में द्रवता से लहरें होती हैं वैसे ही शुद्ध चिन्मात्र में जो चैत्यता होती है उसका नाम मन है वही संकल्प कल्पना से दृश्य की नाई भासता है और उसी संकल्पना का नाम अविद्या है। संकल्प ही से वह उपजी हे मोर कल्पना से ही नष्ट हो जाती है। जैसे वायु से अग्नि उपजती है और वायु से ही लीन होती है वैसे ही संकल्प से अविद्यारूपी जगत् उपजता है और संकल्प ही से नष्ट हो जाता