पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८५

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उत्पत्ति प्रकरण।

को अविद्या नहीं भासती—ब्रह्मसत्ता ही भासती है। हे रामजी! जहाँ तक इसके नेत्रों की दृष्टि जाती है वहां तक आकाश भासता है और जहाँ दृष्टि कुण्ठित होती है वहाँ नीलता भासती है। हे रामजी! जैसे जिसकी दृष्टि यक्ष होती है उसको नीलता भासती है वैसे ही जिस जीव की आत्मदृष्टि क्षय होती है, उसको अविद्यारूपी सृष्टि भासने लगती है वही दुःखरूप है। हे रामजी! चेतन को छोड़के जो कुछ स्मरण करता है उसका नाम अविद्या है और जब चित्त अचल होता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है-असंकल्प होने से ही विद्या नष्ट होती है। जैसे आकाश के फूल है वैसे ही अविद्या है। यह भ्रमरूप जगत् मूखों को सत्य भासता है, वास्तव में कुछ नहीं है, मन जब फुरने से रहित हो तब जगत् भावनामात्र है। उसी भावना का नाम अविद्या है ओर यह मोह का कारण है। जब वही भावना उलटकर आत्मा की भोर भावे तब अविद्या का नाश हो। बारम्बार चिन्तना करने का नाम भावना है। जब भावना आत्मा की ओर वृद्धि होती है तब आत्मा की प्राप्ति होती है और अविद्या नष्ट हो जाती है। मन के संसरने का नाम अविद्या है। जब आत्मा की ओर संसरना होता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है। हे रामजी! जैसे राजा के आगे मन्त्री और टहलुये कार्य करते हैं, वैसे ही मन के भागे इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। हे रामजी! बाह्य के विषय पदाथों की भावना छोड़के तुम भीतर आत्मा की भावना करो तव आत्मपद को प्राप्त होगे। जिन पुरुषों ने अन्तःकरण में आत्मा की भावना का यत्न किया है वे शान्ति को प्राप्त हुए हैं। हे रामजी! जो पदार्थ आदि में नहीं होता, वह अन्त में भी नहीं रहता, इससे जो कुछ भासता है वह सब ब्रह्मसत्ता है। उससे कुछ भिन्न नहीं और जो भिन्न भासता है वह मनोमात्र है। तुम्हारा स्वरूप निर्विकार और आदि अन्त से रहित ब्रह्मतत्त्व है। तुम क्यों शोक करते हो? अपना पुरुषार्थ करके संसार की भोग वासना को मूल से उखाड़ो और आत्मपद का अभ्यास करो तो दृश्य भ्रम मिट जावे। हे रामजी! इस संसार की वासना का उदय होना जरा मरण और मोह देनेवाला है। जब स्वरूप का प्रमाद होता है तब जीव की यह कल्पना