पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८६

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योगलशवाशिष्ठ।

उठती है और आकाशरूपी अनन्त फाँसियों से बन्धवान होता है। तब वासना और वृद्धि हो जाती है और कहता है कि ये मेरे पुत्र हैं, यह मेरा धन है, यह मेरे बान्धव हैं, ये मैं हूँ; वह और है। हे रामजी! जिस शरीर से मिलकर यह जल्पना करता है वह शरीर शून्यरूप है। जेसे वायु गोले के साथ तृण उड़ते हैं, वैसे अविद्यारूपी वासना से शरीर उड़ते हैं भहं त्वं आदिक जगत् भवानी को भासता है और ज्ञानवान को केवल सत्य ब्रह्म भासता है। जैसे रस्सी के न जानने से सर्प भासता है और रस्सी के सम्यक ज्ञान से सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है, वैसे ही आत्मा के भवान से जगत् भासता है और आत्मा के सम्यकज्ञान से जगत्भ्रम नष्ट हो जाता है। इससे तुम आत्मा की भावना करो। हे रामजी! रस्सी में दो विकल्प होते हैं-एक रस्सी का और दूसरा सर्प का, वे दोनों विकल्प भवानी को होते हैं ज्ञानी को नहीं होते। जो जिज्ञासु होता है उसकी वृत्ति सत्य और असत्य में डोलायमान होती है और जो ज्ञानवान है उसको विचार से ब्रह्मतत्त्व ही भासता है। इससे तुम अज्ञानी मत होना ज्ञानवान होना, जो कुछ जगत् की वासना है उन सबका त्याग करो तब शान्तिमान होगे, हे रामजी! संसार भोग की वासना भी तब होती है जब अनात्मा में आत्माभिमान होता है, तुम इसके साथ काहे को अभिमान करते हो? यह देह तो मूक जड़ है और अस्थि-मांस की थैली है। ऐसी देह तुम क्यों होते हो? जब तक देह में अभिमान होता है तब तक सुख और दुःख भोगता है और इच्छा करता है। जैसे काष्ठ और लाख तथा घट और भाकाश का संयोग होता है वैसे ही देह और देही का संयोग होता है। जैसे नली के अन्तर आकाश होता है सो उसके नष्ट होने से आकाश नहीं नष्ट होता और जैसे घट के नष्ट होने से घटाकाश नहीं नष्ट होता वैसे ही देह के नष्ट होने से प्रात्मा कानाश नहीं होता। हे रामजी! जैसे मृगतृष्णा की नदी भ्रान्ति से भासती है वैसे ही अज्ञान से सुख दुःख की कल्पना होती है। इससे तुम सुख दुःख की कल्पना को त्यागके अपने स्वभावसत्ता में स्थित हो। बड़ा आश्चर्य है कि ब्रह्मतत्त्व सत्यस्वरूप है पर मनुष्य उसे भुल गया है और जो