पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८७

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उत्पत्ति प्रकरण।

असत्य अविधा है उसको बारम्बार स्मरण करता है ऐसी अविद्या को तुम मत प्राप्त हो। हे रामजी! मन का मनन ही अविद्या है और अनर्थ का कारण है, इससे जीव अनेक भ्रम देखता है। मन के फुरने से अमृत से पूर्ण चन्द्रमा का विम्ब भी नरक की अग्नि समान भासता है और बड़ी लहरों तरङ्गों और कमलों से संयुक्त जल भी मरुस्थल की नदी समान भासता है। जैसे स्वम में मन के फुरने से नाना प्रकार के सुख और दुःख का अनुभव होता है वैसे ही यह सब जगभ्रम चित्त को वासना से भासता है। जाग्रत् और स्वम में यह जीव मन के फुरने से विचित्र रचना देखता है। जैसे स्वर्ग में बैठे हुए को भी स्वम में नरकों का अनुभव होता है वैसे ही आनन्दरूप आत्मा में प्रमाद से दुःख का अनुभव होता है। हे रामजी! अज्ञानी मन के फुरने से शून्य अणु में भी सम्पूर्ण जगत् भ्रम दीखता है जैसे राजा लवण को सिंहासन पर बैठे चाण्डाल की अवस्था का अनुभव हुआथा। इससे संसार की वासना को तुम चित्त से त्याग दो। यह संसार वासना बन्धन का कारण है। सब भावों में वर्तों परन्तु राग किसी में न हो। जैसे स्फटिक मणि सब प्रतिबिम्बों को लेता है परन्तु रङ्ग किसी का नहीं लेता तैसे ही तुम सब कार्य करो परन्तु द्वेष किसी में न रक्खो। ऐसा पुरुष निर्बन्धन है उसको शास्त्र के उपदेश की आवश्यकता नहीं, वह तो निजरूप है। हे रामजी! जो कुछ प्रकृत आचार तुमको प्राप्त हो तो देना, लेना, बोलना, चालना आदिक सब कार्य करो परन्तु भीतर से अभिमान कुछ न करो, निरभिमान होकर कार्य करो-यह ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे यथाकथितदोषपरिहारोपदेशो
नाम नवाशीतितमस्सर्गः॥८९॥

इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब महात्मा वशिष्ठजी ने कहा तब कमलनयन रामजी ने वशिष्ठजी की ओर देखा और उनका अन्तःकरण रात्रि के मुँदे हुए कमल की नाई प्रफुल्लित हो आया। तब रामजी बोले कि बड़ा आश्चर्य है! पद्म की ताँत के साथ पर्वत बाँधा है। अविद्यमान भविद्या ने सम्पूर्ण जगत् वश किया है और अविद्यमान जगत्