पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८२
योगवाशिष्ठ।

को वज्रसारवत् दृढ़ किया है। यह सब जगत् असत्यरूप है और सत्य की नाई स्थित किया है। हे भगवन्! इस संसार की नटनी माया में क्या रूप है, महापुण्यवान लवण राजा ऐसी बड़ी आपदा में कैसे पास हुआ और इन्द्रजाली जिसने भ्रम दिखाया था वह कौन था कि उसको अपना अर्थ कुछ न था? वह कहाँ गया और इस देही और देह का कैसे सम्बन्ध हुआ और शुभ अशुभ कर्मों के फल कैसे भोगता है? इतने प्रश्नों का उत्तर मेरे बोध के निमित्त दीजिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह देह काष्ठ और मिट्टी के समान है, जैसे स्वप्न में चित्त के फुरने से देह भासता है वैसे ही यह देह भी चित्त से कल्पित है और चित्त ही चैत्य सम्बन्धसे जीव पद को प्राप्त हुआ है। यह जीव चित्त सत्ता से शोभायमान है उस चित्त के फुरने से संसार उपजा है, वह वानर के बालक के समान चञ्चल है और अपने फुरनेरूप कर्मों से नाना प्रकार के शरीर धरता है। उसी चित्त के नाम अहङ्कार, मन और जीव हैं। वह चित्त ही भवान से सुख दुःख भोगता है, शरीर नहीं भोगता। जो प्रबोधचित्त है वह शान्तरूप है। जब तक मन अप्रबोध है और अविद्यारूपी निद्रा में सोया है तब तक स्वप्नरूप अनेकसृष्टि देखता है और जब अविद्या निद्रा से जागता है तब नहीं देखता। हे रामजी! जबतक जीव अविद्या से मलिन है तब तक संसार भ्रम देखता है और जब बोधवान होता है तब संसारभ्रम निवृत्त हो जाता है। जैसे रात्रि होने से कमल मुंद जाते हैं और सूर्य के उदय होने से खिल आते हैं वैसे ही विद्या से जा प्रत्भ्रम देखता है और बोध से अद्वैत रूप होता है। इससे अज्ञान ही दुःख का कारण है। अविवेक से पञ्चकोश देह में अभिमानी होकर जैसे कर्म करता है वैसे ही भोगता है, शुभ करता है तो सुख भोगता है और अशुभ से दुःख भोगता है जैसे नटवा अपनी क्रिया से अनेक स्वाँग धारता है वैसे ही मन अपने फुरने से अनेक शरीर धारता है जो कुछ इष्ट-अनिष्ट सुख दुःख हैं वे एक मन के फुरने में हैं और शरीर में स्थित होकर मन ही करता है। जैसे रथ पर आरूढ़ होकर सारथी चेष्टा करता है और बाँबी में बैठके सर्प चेष्टा करता है वैसे शरीर में स्थित होकर मन चेष्टा करता है। हे रामजी! अचल