पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८९

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उत्पति प्रकरण।

रूप शरीर को मन चञ्चल करता है। जैसे वृक्ष को वायु चञ्चल करता है वैसे जड़ शरीर को मन चञ्चल करता है। जो कुछ सुख दुःख की कलना है वह मन ही करता है और वही भोगता और वही मनुष्य है। हे रामजी! अब लवण का वृत्तान्त सुनो। लवण राजा मन के भ्रमने से चाण्डाल हुआ। जो कुछ मन से करता है वही सफल होता है। हे रामजी! एक काल में हरिश्चन्द्र के कुल में उपजा राजा लवण एकान्त बगीचे में बैठ के विचारने लगा कि मेरा पितामह बड़ा राजा हुआ है और मेरे बड़ों ने राजसूय यज्ञ किये हैं। मैं भी उनके कुल में उत्पन्न हुआ हूँ इससे मैं भी राजसूय यज्ञ करूँ। इस प्रकार चिन्तना करके लवण ने मानसी यज प्रारम्भ किया और देवता, ऋषि, सुर, मुनीश्वर, अग्नि, पवन आदिक देवताओं की मन से पूजा की और मन्त्र और सामग्री जो कुछ राजसूय यज्ञ का कर्म है सो सम्पूर्ण करके मन से दक्षिणा दी। सवावर्ष पर्यन्त उसने यह यज्ञ किया और मन ही से उसका फल भोगा। इससे हे रामजी! मन ही से सब कर्म होता है और मन ही भोगता है जैसा चित्त है वैसा ही पुरुष है, पूर्णचित्त से पूर्ण होता है और नष्ट चित्त से नष्ट होता है अर्थात् जिसका चित्त प्रात्मतत्त्व से पूर्ण है सो पूर्ण है और जो भात्मतत्त्व से नष्टचित्त है वह नष्टपुरुष है। हे रामजी! जिसको यह निश्चय है कि मैं देह हूँ वह नीचबुद्धि है और अनेक दुःखों को प्राप्त होगा और जिसका चित्त पूर्ण विवेक में जागा है उसको सब दुःखों का प्रभाव हो जाता है। जैसे सूर्य के उदय होने से कमलों का सकुचना दूर हो जाता है और वे खिल पाते हैं, वैसे ही विवेकरूपी सूर्य के प्रकाश से रहित पुरुष दुःखों में संकुचित रहते हैं। जो विवेकरूपी सूर्य के प्रकाश से प्रफुल्लित हुए हैं वे संसार के दुःखों से तर जाते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सुखदुःखभोक्तव्योपदेश
कथनानाम नवतितमस्सर्गः॥१०॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन! राजा लवण ने राजसूय यज्ञ मन से किया और मन ही से उसका फल भोगा परन्तु ऐसा साम्बरी कौन था जिसने उसको भ्रम दिखाया। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब वह साम्बरी