पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९

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वैराग्य प्रकरण।

रहती है जैसे पिटारे में जल भरिये तो वह पूर्ण नहीं होता, क्योंकि छिद्रों से जल निकल जाता है और पिटारा शून्य का शून्य रहता है वैसे ही चित्त भोग भोर पदार्थों से संतुष्ट नहीं होता सदा तृष्णा ही रहती है। हे मुनीश्वर! यह चित्तरूपी महामोह का समुद्र है; उसमें तृष्णारूपी तरङ्गें उठती ही रहती हैं, कभी स्थिर नहीं होतीं। जैसे समुद्र में तीक्ष्ण तरंगों से तट के वृक्ष वह जाते हैं वैसे ही चित्तरूपी समुद्र में विषयी बह जाते हैं। वासनारूपी तरंग के वेग से मेरा अचल स्वभाव चलायमान हो गया है; इसलिये इस चित्त से मैं महादीन हुआ हूँ। जैसे जाल में पड़ा हुआ पक्षी दीन हो जाता है वैसे ही चित्तरूप धीवर के वासनारूपी जाल में बँधा हुआ मैं दीन हो गया हूँ। जैसे मृग के समूह से भूली मृगी अकेली खेदवान् होती है वैसे ही में आत्मपद से भूला हुआ खेदवान् हुआ हूँ। हे मुनीश्वर! यह चित्त सदा क्षोभवान रहता है, कभी स्थिर नहीं होता। जैसे क्षीरसमुद्र मन्दराचल से शोभवान् हुआ था वैसे ही यह चित्त सङ्कल्प-विकल्प मे खेद पाता है। जैसे पिंजरे में आया सिंह पिंजरे ही में फिरता है वैसे ही वासना में आया चित्त स्थिर नहीं होता। हे मुनीश्वर! जैसे भारी पवन से सूखा तृण दूर से दूर जा पड़ता है वैसे ही इस चित्तरूपी पवनने मुझको आत्मानन्द से दूर फेंका है जैसे सूखे तृण को अग्नि जलाती है वैसे ही मुझको चित्त जलाता है। जैसे अग्नि से धूम निकलता है वैसे ही चित्तरूपी अग्नि से तृष्णारूपी धूम निकलता है उससे मैं परम दुःख पाता हूँ। यह चित्त हंस नहीं बनता। जैसे राजहंस मिले हुए दूध और जल को भिन्न भिन्न करता है उसकी नाई मैं आत्मा से अज्ञान के कारण एक हो गया हूँ, उसको भिन्न नहीं कर सकता मोर जब भात्मपद पाने का यत्न करता हूँ तब अज्ञान उसे प्राप्त नहीं करने देता। जैसे नदी का प्रवाह समुद्र में जाता है उसको पहाड़ सूधे नहीं चलने देता और समुद्र की ओर नहीं जाने देता वैसे ही मुझको चित्त आत्मा की ओर से रोकता है। वह परम शत्रु है। हे मुनीश्वर! वही उपाय कहिये जिससे चित्तरूपी शत्रु का नाश हो। जैसे मृतक शरीर को श्वान खाते हैं वैसे