पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९०

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योगवाशिष्ठ।

लवण राजा की सभा में आया तब मैं वहाँ था। मुझसे लवण और उसके मन्त्री ने पूछा कि यह कौन है? तब मैंने उनसे जो कुछ कहा था वह तुमसे भी कहता हूँ। हे रामजी! जो पुरुष राजसूय यज्ञ करता है उसको बादश वर्ष की आपदा प्राप्त होती है उस द्वादश वर्ष में वह अनेक दुःख देखता है। राजा लवण ने जो मन से यज्ञ किया इसलिये उसको आपदा भी मन से ही प्राप्त हुई। स्वर्ग से इन्द्र ने अपना दूत आपदा भुगवाने के निमित्त भेजा। वह साम्बरी का रूप होकर आया और राजा को चाण्डाल की आपदा भुगताकर फिर स्वर्ग में चला गया। हे रामजी! जो कुछ मैंने प्रत्यक्ष देखा था वह तुमसे कहा। इससे मन ही करता है और मन ही भोगता है। जैसे जैसे दृढ़ संकल्प मन में फरता है उसके अनुसार उसको सुख दुःख का अनुभव होताहै। हे रामजी! जब तक चित्त फुरता है तबतक आपदा प्राप्त होती है। जैसे ज्यों ज्यों कीकर का वृक्ष बढ़ता है त्यों त्यों कण्टक बढ़ते जाते हैं वैसे ही मन के फुरने से आपदा बढ़ती जाती है। जब मन स्थिर होता है तब आपदा मिट जाती है। इससे हे रामजी। इस चित्तरूपी बरफ को विवेकरूपी तपन से पिघलायो तब परम सार की प्राप्ति होगी। यह चित्त ही सकल जगत् भाडम्बर का कारण है, उसको तुम अविद्या जानो। जैसे वृक्ष, विटप और तरु एक ही वस्तु के नाम हैं वैसे ही अविद्या, जीव, बुद्धि अहंकार सव फुरने के नाम हैं इसको विवेक से लीन करो। हे रामजी! जैसा संकल्प दृढ़ होता है वैसा ही देखता है। हे रामजी! वह कौन पदार्थ है जो यत्न करने से सिद्ध न हो? जो हठ से न फिरे तो सब सिद्ध होता है। जैसे बरफ के बासनों को जल में डालिये तो जल से एकता ही हो जाती है तैसे ही आत्मबोध से सब पदार्थों की एकता हो जाती है। रामजी ने फिर पूछा, हे भगवन्! आपने कहा कि सुख-दुःख सब मन ही में स्थिर हैं भोर मन की वृत्ति नष्ट होने से सब नष्ट हो जाते हैं सो चपल वृत्ति कैसे क्षय हो? वशिष्ठजी बोले, हे रघुकुल में श्रेष्ठ ओर आकाश के चन्द्रमा। मैं तुमसे मन के उपशम की युक्ति कहता हूँ। जैसे सवार के वश घोड़ा होता है तैसे ही मन तुम्हारे वश रहेगा। हे रामजी! सब भूत ब्रह्म ही से उपजे हैं।