पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९२

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योगवाशिष्ठ।

वे सब इन्हीं सप्त के अन्तर्गत हैं। हे रामचन्द्र! आत्मारूपी वृक्ष है और अपना पुरुषार्थरूपी वसन्त ऋतु हैं, उससे दो प्रकार की बेलें उत्पन्न होती हैं—एक शुभ और दूसरी अशुभ। पुरुषार्थरूपी रस के बढ़ने से फल की प्राप्ति होती है। अब ज्ञान किसको कहते हैं सो सुनो। शुद्ध चिन्मात्र में चैत्यदृश्य फरने से रहित होकर स्थित होने का नाम ज्ञान है और शुद्ध चिन्मात्र अद्वैत में अहं संवेदना उठती है सो स्वरूप से गिरना है, वही मज्ञान दशा है। हे रामचन्द्र। यह मैंने तुमसे संक्षेप से ज्ञान और प्रज्ञान का लक्षण कहा है। शुद्ध चिन्मात्र में जिनकी निष्ठा है, सत्यस्वरूप से चलायमान नहीं होते और राग-द्वेष किसी से नहीं रखते, वे ज्ञानी हैं और ऐसे शुद्ध चिन्मात्र स्वरूप से जो गिरे हैं वे अज्ञानी हैं। और जो जगत् के पदार्थों में मग्न हैं वे अज्ञानी हैं इससे परममोह और कोई नहीं-यही परममोह है। स्वरूपस्थित इसका नाम है कि एक अर्थ को छोड़ के जो संवित् और अर्थ को प्राप्त होता है। जाग्रत् को त्यागकर सुषुप्ति प्राप्त होती है और उसके मध्य में जो निर्मल सत्ता है उसमें स्थित होनास्वरूपस्थिति कहाती है। हे रामचन्द्र! भले प्रकार सर्वसंकल्प जिसके शान्त हुए हैं और जो शिला के अन्तरवत् शून्य है वह स्वरूपस्थिति है। अहं त्वं आदिक फुरने से और भेदविकार और जड़ से रहिन अचैत्य चिन्मात्र है सो आत्मस्वरूप कहाता है। उस तत्त्व में फिरकर जो जीवों की अवस्था हुई है वह सुनो। हे रामचन्द्र! १ वीज जाग्रत् है, २ जाग्रत, ३ महाजाग्रत्. ४ जाग्रत् स्वप्न, ५ स्वप्न, ६ स्वप्न जाग्रत् और ७ सुषुप्ति ये सात प्रकार की मोह की अवस्था है। इनके अन्तर्गत और भी अनेक अवस्था हैं। पर मुख्य ये सात ही हैं अब इनके लक्षण सुनो। हे रामजी! आदि जो शुद्ध चिन्मात्रप्रशब्दपद तत्त्व से चैतनता का अहं है उसका भविष्यत् नाम जीव होता है। आदि वह सर्व पदार्थों का बीजरूप है और उसी का नाम बीज जाग्रत् है। उसके अनन्तर जो अहं और यह मेरा इत्यादिक प्रतीति दृढ़ हो और जन्मान्तरों में आसे उसका नाम जाग्रत् है। यह है मैं हूँ, इत्यादिक शब्दों से तन्मय होना और जन्मान्तर में बैठे हुए जो मन फुरता है मनोराज में वह फुरना दृढ़ हो भासना जाग्रत् स्वप्न कहाता है और