पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९४

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योगवाशिष्ठ।

ज्ञान है, उस ज्ञान की सप्तभूमिका हैं और मुक्त इन सप्तभूमिकाओं के परे हैं वे विदेहमुक्त हैं वे ये हैं—१ शुभेच्छा, २ विचारना, ३ तनुमानसा, ४ सत्वापत्ति, ५ असंसक्ति, ६ पदार्थाभावनी और ७ तुरीया। इनके। सार को प्राप्त हुआ फिर शोक नहीं करता। अब इसका अर्थ सुनो। जिसको यह विचार फुर आवे कि मैं महामूढ हूँ, मेरी बुद्धि सत्य में नहीं है संसार की ओर लगी है और ऐसे विचार के वैराग्यपूर्ण सत्शास्त्र और सन्तजनों की सङ्गति की इच्छा करे तो इसका नाम शुभेच्छा है। सत्शाखों को विचारना सन्तों की सङ्गति, विषयों से वैराग्य और सत्यमार्ग का अभ्यास करना, इनके सहित सत्याआचार में प्रवर्तना और सत्य को सत्य और असत्य को प्रसत्य जानकर त्याग करना इसका नाम विचारना है। विचार और शुभेच्छा सहित तत्त्व का अभ्यास करना और इन्द्रियों के विषयों से वैगग्य करना यह तीसरी भूमिका तनुमानसा है। इन तीन भूमिकों का अभ्यास करना, इन्द्रियों के विषय और जगत् से वैराग करना और श्रवण, मनन और निदिध्यासन से सत्य आत्मा में स्थित होनेका नाम सत्वापत्ति है। इससे सत्य आत्मा का अभ्यास होता है। ये चार भूमिका संयम का फल जो शुद्ध विभूति है उसमें प्रसंसक्त रहने का नाम असंसक्ति है। दृश्य का विस्मरण और भीतर से बाहर नाना प्रकार के पदार्थों के तुच्छ भासने का नाम पदार्थाभावनी है, यह छठी भूमिका है। हे रामचन्द्र! चिरपर्यन्त छठी भूमिका के अभ्यास के भेद कलना का अभाव हो जाता है और स्वरूप में दृढ़ परिणाम होता है। छः भूमिका जहाँ एकता को प्राप्त हों उसका नाम तुरीया है। यह जीवन्मुक्त की अवस्था है। जीवन्मुक्त तुरीयापद में स्थित है। तीन भूमिका जगत् की जाग्रत अवस्था में हैं, चौथी तत्त्वज्ञानी की है; पाँची और छठी जीवन्मुक्त की अवस्था हैं और तुरीयातीतपद में विदेहमुक्त स्थित होता है। हे रामचन्द्र! जो पुरुष महाभाग्यवान है वह सप्तम भूमिका में स्थित होता है और वही आत्मारामी महापुरुष परमपद को प्राप्त होता है। हे रामचन्द्र! जो जीवन्मुक्त पुरुष हैं वे सुख-दुःख में मग्न नहीं होते और शान्तरूप होके अपने प्रकृत प्राचार को करते हैं, अथवा नहीं करते