पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९५

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उत्पत्ति प्रकरण।

तो भी उनको कुछ बन्धन नहीं, उनको क्रिया का बोध कुछ नहीं रहता। जैसे सुषुप्त पुरुष के निकट जाके कोई क्रिया करे तो उसे कुछ बोध नहीं होता तैसे ही उसको भी क्रिया का बोध नहीं होता, वह तो सुषुप्तवत् उन्मीलितलोचन है। हे रामचन्द्र! जैसे मुंषुप्त पुरुष को रूप, इंद्रिय और उनका अभाव हो जाता है तैसे ही सप्तभूमिका में अभाव हो जाता है। यह ज्ञान की सप्तभूमिका ज्ञानवान् का विषय है, पशु, वृक्ष, म्लेच्छ, मूर्ख और पापाचारियों के चित्त में इनका अधिकार नहीं होता। जिसका मन निर्मल है उसको इन भूमिकाओं में अधिकार है, कदाचित् पशु, म्लेच्छ आदि को भी इनका अभ्यास हो तो वह भी मुक्त हो जाता है, इसमें कुछ संशय नहीं। हे रामचन्द्र! आत्मज्ञान से जिनके हृदय की गाँठ टूट गई है उनको संसार मृगतृष्णा के जलवत् मिथ्या भासता है और वे मुक्त रूप हैं और जो संसार से विरक्त होकर इन भूमिकाओं में आये हैं और मोहरूपी समुद्र से नहीं तरे और पूर्ण पद को भी नहीं प्राप्त हुए और सप्तभूमिका में से किसी भूमिका में लगे हैं वे भी आत्मपद को पाकर पूर्ण आत्मा होंगे। हे रामचन्द्र! कोई तो सप्भूमिकाओं को प्राप्त हुए हैं, कोई पहली ही भूमिका में, कोई दूसरी और कोई तीसरी को प्राप्त हुए हैं। कोई चौथी को, कोई पाँचवीं को, कोई छठी को और कोई अर्द्धभूमिका को ही प्राप्त हुए हैं। कोई गृह में हैं, कोई वन में हैं, कोई तपसी हैं और कोई अतीत हैं। इससे आदि लेकर वे पुरुष धन्य और बड़े शूरमा हैं कि जिन्होंने इन्द्रियरूपी शत्रु को जीता है। जिस पुरुष ने एक भूमिका को भी जीता है सो वन्दना करने योग्य है, उसको चक्रवर्ती राजा जानना, बल्कि उसके सामने राज्य और बड़ा ऐश्वर्य विभूति भी तृणवत् है। वह परमपद को प्राप्त होता है।

इति श्री योगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे ज्ञानभूमिकोपदेशो नाम
त्रिनवतितमस्सर्गः॥९३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे सोने में भूषण फुरे और अपना सुवर्णभाव भुल के कहे मैं भूषण हूँ तैसे ही वित्तसंवेदन जिस स्वरूप से फुरा है उससे भूलकर अहंवेदना हुई उसने अहंकार रूप धरा है