पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९८

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योगवाशिष्ठ।


चाण्डाली बोली, हे राजन्! एक समय वर्षा न होने से अकाल पड़ा और सब जीवों को बड़ा दुःख हुआ। उस समय मेरे पुत्र, पौत्र, पोत्रियाँ, जामाता, भर्ता आदिक बांधव यहाँ से निकल गये और कहीं कष्ट पाके। मर गये। उनके वियोग से मैं दुःखी होकर रुदन करती हूँ और उनके बिना मैं शून्य हो गई हूँ। जैसे बिछुरी हुई हथिनी अकुलाती है तैसे ही मैं अकुलाती हूँ। हे रामचन्द्र! जब इस प्रकार चाण्डाली ने कहा तब राजा अति विस्मित हुआ और मन्त्री के मुख की भोर ऐसे देखने लगा जैसे कागज पर पुतली होती है। निदान राजा विचारे और आश्चर्यवान हो, उस चाण्डाली से बारम्बार पूछे और वह फिर कहे और राजा आश्चर्यवान होवे। तब राजा उसको यथायोग्य धन देकर चिरपर्यन्त वहाँ रहा और फिर अपने राजमन्दिर में आया जब प्रातःकाल हुआ तब सभा में आकर मुझसे पूछने लगा हे मुनीश्वर! यह स्वप्ना मुझको प्रत्यक्ष कैसे हुआ? इसको देखकर मैं आश्चर्यवान हुआ हूँ। तब मैंने प्रश्नानुसार उसको युक्ति से उत्तर दिया और उसके चित्त का संशय ऐसे दूर कर दिया जैसे मेघ को वायु दूर करे, वही तुमसे कहता हूँ। हे रामजी! अविद्या ऐसी है कि असत्य को शीघ्र ही सत्य और सत्य को असत्य कर दिखाती है और बड़ा भ्रम दिखानेवाली है। रामजी ने पूछा, हे भगवन! स्वप्ना कैसे सत्य हुआ, यह मेरे चित्त में बड़ा संशय स्थित हुआ है। उसको दूर कीजिये। वशिष्ठ जी बोले, हे रामजी! इसमें क्या आश्चर्य है? अविद्या से सब कुछ बनता है। स्वप्न में तुम प्रत्यक्ष देखते हो कि घट से पट और पट से घट हो जाता है। स्वप्न और मृत्यु में मूर्च्छा के अनन्तर बुद्धि विपर्यय होजाती है। जिनका चित्त वासना से वेष्टित है उनको जैसा संवेदन फुरताहै तैसे ही भासता है। हे रामजी! जिनका चित्त स्वरूप से गिरा है उनको अविद्या अनेक भ्रम दिखाती है। जैसे मद्यपान और विष पीनेवालाभ्रमको प्राप्त होता है वैसे ही अविद्या से जीव भ्रम को प्राप्त होता है। एक और राजा था उसकी भी वही व्यवस्था हुई थी जो लवण राजा के चित्त में फुर आई थी। जैसे उसकी चेष्टा हुई थी तैसे ही इसको भी फुर आई तब उसने जाना कि मैंने यह क्रिया की है। जैसे अभोक्ता पुरुष आपको स्वप्न में