पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९९

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उत्पत्ति प्रकरण।

भोक्ता देखता है कि मैं राजा हुआ हूँ, मैं तृप्त हूँ, अथवा भूखा सोया हूँ, और यह क्रिया मैंने करी है तैसे ही लवण को फर आया था सो प्रतिभा (भास) है सभा में बैठे चाण्डाल की चेष्टा लवण को फुर आई अथवा विन्ध्याचल पर्वत के चाण्डालों की प्रतिभा लवण को फुरी सो लवण को वह भ्रम दृढ़ हो गया। एक ही सदृश भ्रम अनेकों को फुर आता है और स्वप्न भी सदृश होता है जैसे एक ही रस्सी में अनेकों को सर्प भासता है इसी प्रकार अनेक जीवों को एक भ्रम भनेकरूप हो भासता है। हे रामजी! जितने पदार्थ भासते हैं उनकी सत्ता में संवेदन हुआ है। जैसे उनमें संकल्प दृढ़ होता हे तैसे ही होकर भासता है। जो पदार्थ सत्यरूप हो भासता है वह सत्य होता है और जो असत्रूप हो भासता है वह असत्य हो जाता है। सब ही पदार्थ संवेदनरूप हैं और तीनों काल भी संवेदन से उपजे हैं। इनका बीज संवेदन है। सब पदार्थ अविद्यारूप हैं और जैसे रेत में तेल है तैसे ही आत्मा में अविद्या है। आत्मा से अविद्या का सम्बन्ध कदाचित् नहीं क्योंकि सम्बन्ध समरूप का होता है। जैसे काष्ठ और लाख का सम्बन्ध होता है सो आकार सहित है और जो आकार से रहित है उसका सम्बन्ध कैसे हो? जैसे प्रकाश और तम का सम्बन्ध नहीं होता तैसे ही चेतन से चेतन का सम्बन्ध होता है और विजातीय का सम्बन्ध नहीं, इससे अविद्यारूप देह को आत्मा से सम्बन्ध नहीं। जो जड़ से आत्मा का सम्बन्ध हो तो आत्मा जड़ हो, परमात्मा तो सदा चेतनरूप है और सर्वदा अनुभव से प्रकाशता है, उसको जड़ कैसे कहिये? जैसे स्वाद को जिह्वा ग्रहण करती है और अङ्ग नहीं करते तैसे ही चेतन से चेतन की, जड़ से जड़ की, जलसे जल की, माटी से माटी की, अग्नि से अग्नि की, प्रकाश से प्रकाश की, तम से तम की, इसी प्रकार सब पदार्थों की सजातीय पदार्थों से एकता होती है, विजातीय से नहीं होती। इससे सब चैतन्याकाश है और पाषाणादिक दृश्यवर्ग कोई नहीं भ्रम से इनके भूषण भासते हैं। जैसे सुवर्ण बुद्धि को त्यागकर नाना प्रकार के भूषण भासते हैं तैसे ही जब अहंवेदना आत्मा में फुरती है तब अनेकरूप होकर विश्व भासता है जैसे सुवर्ण