पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०

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योगवाशिष्ठ।

ही तृष्णा मुझे खा रही है। आत्मा के ज्ञान बिना मैं मृतक समान हूँ। जैसे बालक अपनी परछाही को वैताल मानकर भय पाता है और जब विचार करने में समर्थ होता है तब वैताल का भय नहीं होता वैसे ही चित्तरूपी वैताल ने मेरा स्पर्श किया है उससे मैं भय पाता हूँ। इससे आप वही उपाय कहिये जिससे चित्तरूपी वैताल नष्ट हो जावे। हे मुनीश्वर! अज्ञान से मिथ्या वैताल चित्त में दृढ़ हो रहा है उसके नाश करने को मैं समर्थ नहीं हो सकता। अग्नि में बैठना, बड़े पर्वत के ऊपर जाना और वज्र का चूर्ण करना मैं सुगम मानता हूँ परन्तु चित्त का जीतना महाकठिन है। चित्त सदा ही चलायमान स्वभाववाला है। जैसे थम्भ से बाँधा हुआ वानर कभी स्थिर हो नहीं बैठता वैसे ही चित्त वासना के मारे कभी स्थिर नहीं होता। हे मुनीश्वर! बड़े समुद्र का पान कर जाना, अग्नि का भक्षण करना और सुमेरु का उलंघन करना सुगम है, परन्तु चित्त का जीतना महाकठिन है जो सदा चलरूप है जैसे समुद्र अपना द्रवी स्वभाव कदाचित् नहीं त्यागता, महाद्रवीभूत रहता है और उससे नाना प्रकार के तरंग उठते हैं वैसे ही चित्त भी चञ्चल स्वभाव को कभी नहीं त्यागता और नाना प्रकार की वासना उपजती रहती हैं। चित्त बालक की नाई चञ्चल है, सदा विषय की ओर धावता है; कहीं-कहीं पदार्थ की प्राप्ति होती परन्तु भीतर सदा चञ्चल रहता है। जैसे सूर्य के उदय होने से दिन होता है और आस्त होने से दिन का नाश होता है, वैसे ही चित्त के उदय होने से त्रिलोकी की उत्पत्ति है और चित्त के लीन होने से जगत् भी लीन हो जाता है। हे मुनीश्वर! चित्तरूपी समुद्र है, वासनारूपीजल है, उसमें छलरूपी सर्प जब जीव उसके निकट जाता है तब भोगरूपी सर्प उसको काटता है और तृष्णारूपी विष स्पर्श करता है उससे मरता है। हे मुनीश्वर! भोग को सुखरूप जानकर चित्त दौड़ता है पर वह भोग दुःख का कारण है। जैसे तृण से आच्छादित खाई को देखकर मूर्ख मृग खाने दौड़ता है तो खाई में गिरकर दुःख पाता है वैसे ही चित्तरूपी मृग भोग को सुखरूप जानकर भौगने लगता है तब तृष्णा रूपी खाई में गिर पड़ता है और जन्म जन्मान्तर में दुःख भोगता रहता