पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०१

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उत्पत्ति प्रकरण।


वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मनुष्य जिस प्रकार भूमिका को प्राप्त होता है उसका कम सुनो। प्रथम जन्म से पुरुष को कुछ बोध होता है और फिर क्रम से बड़ा होकर सन्तों की संगति करता है। सदा सदृशरूप जो संसार का प्रवाह है उसके तरने को सत्व शास्त्र और सन्तजनों की संगति बिना समर्थ नहीं होता। जब सन्तों का संग और सत्रशाखों का विचार करने लगता है तब उसको ग्रहण और त्याग की बुद्धि उपजती है कि यह कर्तव्य है और यह त्यागने योग्य है। इसका नाम शुभेच्छा है। जब यह इच्छा हुई तब शास्त्र द्वारा यह विचार उपजता है कि यह शुभ है और यह अशुभ है शुभ का ग्रहण करना और अशुभ का त्याग करना और यथाशास्त्र विचारना इसका नाम विचार है। जब सम्यक् विचार दृढ़ होता है तब मिथ्यारूप संसार की वासना त्यागता है और सत्य में स्थित होता है—इसका नाम तनुमानसा है। जब संसार की वासना क्षीण होती है और सत्य का दृढ़ अभ्यास होता है तब उस वैराग्य और अभ्यास से सम्यक् वान उपजता और आत्मा का साक्षाकार होता है—उसका नाम सत्त्वापत्ति है। मनसे वासना नष्ट होके सिद्धि आदिक पदार्थप्राप्त होते हैं, इनकी प्राप्ति में भी संसक्त नहीं होता, स्वरूप में सदा सावधान रहता है। सिद्धि आदिक पदार्थ प्रारब्ध से प्राप्त होते हैं उनको स्वप्नरूप जान कर्मों के फल में बन्धवान नहीं होता—इसका नाम असंसक है इसके अनन्तर जब मन की तनुता हो गई है और स्वरूप की और चित्त का परिणाम हुआ तब द्दढ़ परिणाम से व्यवहार का भी प्रभाव हो जाता है जो पल पल में कर्म प्रारब्धवेग से करता है, बल्कि उसके चित्त में फुरना भी नहीं फुरता और वह मन क्षीणभाव में प्राप्त होता है। वह कर्ता हुआ भी कुछ नहीं करता और देखता है पर नहीं देखता अर्द्धसुषुप्तिवत् होता है, उसे कर्तव्य की भावना नहीं फुरती और मन भी नहीं फुरता-इसका नाम पदार्थाभावनी योग भूमिका है। इसमें चित्त लीन हो जाता है। इस अवस्था में जब स्वाभाविक चित्त का कुछ काल इस अभ्यास में व्यतीत होता है और भीतर से सब पदार्थों का प्रभाव दृढ़ हो जाता है तब तुरीयारूप होता है और जीवन्मुक्त कहाता है।