पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०२

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योगवाशिष्ठ।

तब वह इष्ट को पाके हर्षवान् नहीं होता और उसकी निवृत्ति में शोकवान् नहीं होता, केवल विगतसन्देह हो उत्तमपद को प्राप्त होता है। हे रामचन्द्र! तुम भी अब ज्ञात ज्ञेय हुए हो। जो कुछ जानने के योग्य है। सो तुमने ज्यों का त्यों जाना है और अब तुम्हारी पदार्थों की भावना तनुता को प्राप्त हुई है। अब तुम्हारे साथ शरीर रहे अथवा न रहे तुम हर्ष शोक से रहित निरामय आत्मा हो और स्वच्छ आत्मतत्व में स्थित सर्वगत सदा उद्यतिरूप जन्म, मरण, जरा, सुख, दुःख से रहित आत्मदृष्टि से अबोधरूप शोक से रहित हो और अद्वैतरूप अपने आपमें स्थित हो। देह उदय भी होता है और लीन भी हो जाता है पर देश, काल वस्तु के भेद से रहित जो आत्मा है वह उदय और मस्त कैसे हो? हे रामचन्द्र! तुम अविनाशी हो, आपको नाशरूप जानकर शोक काहे को करते हो, तुम अमृतसम स्वच्छरूप हो। जैसे घट के फूटने से घटाकाश नष्ट नहीं होता, तेसे ही शरीर के नाश होने से तुम नष्ट नहीं होते। जैसे सूर्य की किरणों के जाने से मृगतृष्णा के जल का नाश हो जाता है किरणों का नाश नहीं होता। हे रामचन्द्र! जो कुछ जगत् के पदार्थ भासते हैं सो असत्यरूप हैं और उनकी वासना भ्रान्ति से होती है, पर तुम तो अद्वैतरूप हो और यह सब तुम्हारी छायामात्र है। तुम किसकी वाञ्छा करते हो? शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध यह जो पाँचों विषयरूप दृश्य हैं सो तुमसे रचकमात्र भी भिन्न नहीं, सब तुम्हारा स्वरूप है। तुम भ्रम मत करो। हे रामजी आत्मा सर्वशक्ति है, वही आभास करके अनेकरूप हो भासता है। जैसे आकाश में शून्यता शक्ति आकाश से भिन्न नहीं, तैसे ही भात्मा में सर्वशक्ति है। जो जगत् द्वैतरूप होकर भासता है वही चित्त से दृढ़ हुआ है सो क्रम से तीन प्रकार का त्रलोक्य जगत् जीव को भ्रम हुआ है—एक सात्त्विक, दूसरा राजस और तीसरा तामस। जब इन तीनों का उपशम हो तब कल्याण होता है। जब वासना क्षय हो तब उसके कर्म भी क्षय हो जाते हैं—उससे भी भ्रम का नाश हो जाता है। चित्त के संसरने का नाम वासना है कर्म संसार मायामात्र है, उनके नष्ट हुए सब शान्त हो जाते हैं। हे रामजी! यह संसार घटयिन्त्र की