पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९७
उत्पत्ति प्रकरण।

नाई है और जीव वासना से बँधे हुए भ्रमते हैं। तुम आत्मविचाररूपी शस्त्र से यत्न करके इसको काटो। जब तक विद्या को जीव नहीं जानता तब तक यह बड़े मोह और भ्रम दिखाती है और जब इसको जानता है तब बड़े सुख को प्राप्त करती है अर्थात् जब तक अविद्या को वास्तव में नहीं जानता तब तक संसार सत्य भासता है और उसमें अनेक भ्रम भासते हैं और जब इसका स्वरूप जाना कि वस्तु नहीं, भ्रमरूप है तब संसारवृत्ति त्याग करता है और स्वरूप को प्राप्त होता है। यह संसार भ्रम से उपजा है और उसी से भोग भोगता और लीला करता है और फिर ब्रह्म में लीन हो जाता है। हे रामचन्द्र! शिवतत्त्व अनन्तरूप अप्रमेय और निर्दुखरूप है, सब भूततत्त्व उसी से उपजते हैं। जैसे जल से तरङ्ग और अग्नि से उष्णता होती है तैसे ही ब्रह्म से जगत् होता है उसी में स्थित है और वही रूप है। सबका आत्मा है और वही आत्मा ब्रह्म कहाता है उसके जानने से जगत् को जानता है पर तीनों लोकों को जानने से उमको नहीं जानता। वह जो अव्यक्त और निर्वाणरूप है, उसके जानने के निमित्त शास्त्रकारों ने ब्रह्म, आत्मा आदिक नाम कल्पे हैं, वास्तव में कोई नाम (संज्ञा) नहीं। हे रामचन्द्र! वह पुरुष रागद्वैष से रहित है और इन्द्रियों भौर इन्द्रियों के विषयों के संयोग वियोग में द्वैष को नहीं प्राप्त होता। वह तो एक, चैतन शुद्ध, संवित्, अनुभवरूप, अविनाशी और आकाश से भी स्वच्छ निर्मल है। उसमें जगत् ऐसे स्थित है जैसे दर्पण में प्रतिविम्ब अन्तर्वाह्यरूप होकर स्थित है-उसमें दैतरूप कुछ नहीं। हे रामचन्द्र! देह से रहित निर्विकल्प चेतन तुम्हारा आकार है। लज्जा, मोह आदिक विकार तुमको कहाँ हैं? तुम आदिरूप हो और लज्जा, हर्ष, अयादिक असत्यरूप हैं। तुम क्यों निर्बुद्धि (मूर्ख) की नाई विकल्प जाल को प्राप्त होते हो? तुम चैतन आत्म अखण्डरूप हो, देह के खण्डित हुए आत्मा का प्रभाव नहीं होता। असम्यकदर्शी भी ऐसा मानते हैं तो बोधवानों का क्या कहना है। हे रामचन्द्र। जो चित्त संवेद से है उसके अनुभव करनेवाली सत्ता सूर्य के मार्ग से भी नहीं रोकी जाती, उसी को तुम चित्सत्ता जानो, वही पुरुष