पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०४

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योगवाशिष्ठ।

है शरीर पुरुषरूप नहीं। हे रामचन्द्र! शरीर सत्य हो अथवा असत्य, पर पुरुष तो शरीर नहीं। देह के रहने और नष्ट होने से प्रात्मा ज्यों का त्यों ही है। ये जो सुख-दुख ग्रहण करते हैं वे देह इन्द्रियादिक चिदात्मा। को नहीं ग्रहण करते। जिन पुरुषों को अज्ञान से देह में अभिमान हुआ है उनको सुख-दुख का अभिमान होता है ज्ञानवान को नहीं होता। आत्मा को दुःख स्पर्श नहीं करता, वह तो सब विकारों से रहित, मन के मार्ग से अतीत, शून्य की नाई स्थित है, उसको सुख-दुःख कैसे हो? और देह से मिला हुआ जो भासता है सो स्वरूप को त्यागकर दृश्य के चेतने से देहादिक भ्रम भासते हैं और वासना के अनुसार देह से सम्बन्ध होता है। जैसे भ्रमर और कमलों का संयोग होता है। देहपिंजर नाश होने से आत्मा का नाश तो नहीं होता। जैसे कमल के नाश होने से भ्रमर का नाश नहीं होता। इससे तुम क्यों वृथा शोक करते हो? हे रामजी! जगत् को असत्य जानकर अभावना करो। मन के निरीक्षक हो। साक्षीभूत, सम, स्वच्छ, निर्विकल्प चिदात्मा में जगत् हो भासता है। जैसे मणि आकाशरूप हो भासता है तो फिर जगत् और आत्मा का सम्बन्ध कैसे हो। जैसे दर्पण में अनिच्छित प्रतिबिम्ब पा प्राप्त होता है, तैसे ही प्रात्मा को जगत् का सम्बन्ध भासता है। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब एक रूप होता है, तैसे ही प्रात्मा में जगत् भेद भी अभेदरूप है। जैसे सूर्य के उदय होने से सब जीवों की क्रिया होती है और दीपक से पदार्थों का ग्रहण होता है तैसे ही आत्मसत्ता से जगत् के पदार्थों का अनुभव होता है। यह जगत् चैतन्यतत्त्व में स्वभाव से उपजा है। प्रथम आत्मा से मन उपजा है और उससे यह जगतजाल रचा है—वास्तव में आत्मसत्ता में आत्मसत्ता स्थित है। जैसे शून्याकाश शून्यता में स्थित है और उसमें जगत् भासता है सो ऐसे है जैसे आकाश में नीलता और इन्द्रधनुष है परन्तु वह शून्यस्वरूप है। हे रामचन्द्र! यह जगत् चित्त में स्थित है और वित्त संकल्परूप है। जब संकल्प क्षय होता है तब चित्त नष्ट हो जाता है और जब चित्त नष्ट हुआ तब संसाररूपी कुहिरा नष्ट हो जाता है और निर्मल शरत्काल के आकाशवत्