पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०६

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श्रीपरमात्मने नमः।

श्रीयोगवाशिष्ठ
चतुर्थ स्थिति प्रकरण प्रारम्।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अब स्थितिप्रकरण सुनिये जिसके सुनने से जगत् निर्वाणता को प्राप्त हो। कैसा जगत् है कि जिसके आदि महन्ता है। ऐसा जो दृश्यरूप जगत् है सो भ्रान्तिमात्र है। जैसे आकाश में नाना प्रकार के रङ्गों सहित इन्द्रधनुष असत्रूप है तैसे ही यह जगत् है। जैसे दृष्टा विना अनुभव होता है और निद्रा विना स्वप्न और भविष्यत् नगर भासता है तैसे ही भ्रम से चित्त में जगत् स्थित हुआ है। जैसे वानर रेत इकट्ठी करके अग्नि की कल्पना करते हैं पर उससे शीत निवृत्त नहीं होती, भावनामात्र अग्नि होती है, तैसे ही यह जगत् भावनामात्र है। जैसे प्राकाश में रत्न मणि का प्रकाश और गन्धर्वनगर भासता है और जैसे मृगतृष्णा की नदी भासती है तैसे ही यह असत्रूप जगत् भ्रम से सतरूप हो भासता है। जैसे दृढ़ अनुभव से संकल्प भासता है पर वह असतरूप है और जैसे कथा के अर्थ चित्त में भासते हैं तैसे ही निःसाररूप जगत् चित्त में साररूप हो भासता है। जैसे स्वप्न में पहाड़ और नदियाँ भास आती हैं, तैसे ही सब भूत बड़े भी भासते हैं पर आकाशवत् शन्यरूप हैं। स्वप्न में अङ्गना से प्रेम करना अर्थ से रहित और अतत्रूप है सिद्ध नहीं होता तैसे ही यह भी प्रत्यक्ष भासता है परन्तु वास्तव में कुछ नहीं, अर्थ से रहित है जैसे चित्र की लिखी कमलिनी सुगन्ध से रहित होती है तैसे ही यह जगत् शून्यरूप है। जैसे आकाश में इन्द्रधनुष और केले का थम्भ सुन्दर भासता है परन्तु उसमें कुछ सार नहीं निकलता तैसे ही यह जगत् देखने में रमणीय भासता है परन्तु भत्यन्त असवरूप है, इसमें सार कुछ नहीं निकलता। देखने में प्रत्यक्ष