पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०८

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योगवाशिष्ठ।

पर आत्मा तो अद्वैत है, उसके निकट दूसरी वस्तु नहीं है, वह कर्ता कैसे हो और किसका हो, सहकारी भी नहीं जिससे कार्य करे, वह तो मन और इन्द्रियों से रहित निराकार अविकृतरूप है। और समवाय कारण भी परिणाम से होता है। जैसे वट बीज परिणाम से वृक्ष होता है, पर आत्मा तो अच्युतरूप है, परिणाम को कदाचित् नहीं प्राप्त होता तो समवाय कारण कैसे हो जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, धीयते, नश्यति, इन षट्विकारों से रहित निर्विकार आत्मा जगत् का कारण कैसे हो? इससे यह जगत् अकारणरूप भ्रान्ति से भासता है। जैसे आकाश में नीलता, सीप में रूपा ओर निद्रादोष से स्वप्न दृष्टि भासते हैं तैसे ही यह जगत् भ्रान्ति से भासता है। और जर स्वरूप में जागे तब जगभ्रम मिट जाता है। इससे कारणकार्य भ्रम को त्यागकर तुम अपने स्वरूप में स्थित हो। दुर्बोध से संकल्प रचना हुई है उसको त्याग करो और आदि, मध्य मौर अन्त से रहित जो सत्ता है उसी में स्थित हो तव जगत्भ्रम मिट जावेगा इति श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्रकरणे जगत् निराकरणनन्नाम प्रथमस्सर्गः॥१॥

वशिष्ठजी बोले, हे देवताओं में श्रेष्ठ, रामजी! बीज से अंकुरवत् आत्मा से जगत् का होना अङ्गीकार कीजिये तो भी नहीं बनता, क्योंकि आत्मा सर्वकल्पनामों से रहित महाचैतन्य और निर्मल आकाशवत् है, उसको जगत् का बीज कैसे मानिये? बीज के परिणाम में अंकुर होता है, और कारण समवायों से होता है, आत्मा में समवाय मौर निमित्त सहकारी कदाचित् नहीं बनते। जैसे बन्ध्या स्त्री की सन्तान किसी ने नहीं देखी तैसे ही आत्मा से जगत् नहीं होता। जो समवाय और निमित्तकारण बिना पदार्थ भासे तो जानिये कि यह है नहीं, भ्रान्तिमात्र भासता है। आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है। और सृष्टि स्थिति, प्रलय से ब्रह्मसत्ता ही अपने आप में स्थित है। जो इस प्रकार स्थिति है तो कारण कार्य का क्रम कैसे हो और जो कारण कार्य भाव न हुमा तो पृथ्वी श्रादिक भूत कहाँ से उपजे? और जो कारण कार्य मानिये तो पूर्व जो विकार कहे हैं उनका दूषण भाता है। इससे न कोई कारण है और न कार्य है, कारण कार्य विना जोप दार्थ भासे