पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०९

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स्थिति प्रकरण।

उसको सतरूप जाने। वह मूर्ख बालक और विवेक से रहित है जो उसे कार्य कारण मानता है—इससे यह जगत् न आगे था, न भव है और न पीछे होगा—स्वच्छ चिदाकाशसत्ता अपने आप में स्थित है। जब जगत् का अत्यन्त प्रभाव होता है तब सम्पूर्ण ब्रह्म ही दृष्टि आता है। जैसे समुद्र में तरङ्ग भासते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है—अन्यथा कारण कार्यभाव कोई नहीं और न प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अन्योन्याभाव ही है। प्रारभाव उसे कहते हैं कि जो प्रथम न हो, जैसे प्रथम पुत्र नहीं होता और पीछे उत्पन्न होताहै। और जैसे मृत्तिका से घट उत्पन्न होता है। प्रध्वंसाभाव वह है जो प्रथम होकर नष्ट हो जाता है, जैसे घट था और नष्ट हो गया। अन्योन्याभाव वह है, जैसे घट में पट का प्रभाव है और पट में घट का प्रभाव है। ये तीन प्रकार के प्रभाव जिसके हृदय में हैं उसको जगव दृढ़ होता है और उसको शान्ति नहीं होती। जब जगत् का अत्यन्ताभाव दीखता है तब चित्त शान्तिमान होता है। जगत् के अत्यन्ताभाव के सिवाय और कोई उपाय नहीं और अद्वैश जगत् की निवृत्ति बिना मुक्ति नहीं होती सूर्य आदि लेकर जो कुछ प्रकाश पृथ्वी आदिक तत्त्व, क्षण, वर्ष, कल्प आदिक काल और मैं, यह, रूप, अवलोक, मनस्कार इत्यादिक जगत् सब संकल्पमात्र है और कल्प, कल्पक, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मा, विष्णु, रुद, इन्द से कीट आदिपर्यन्त जो कुछ जगत् जाल है वह उपज उपजकर अन्तर्धान हो जाता है। महाचैतन्य परम आकाश में अनन्त वृत्ति उठती है। जैसे जगत् के पूर्व शान्त सत्ता थी तैसे ही तुम भव भी जानो और कुछ नहीं हुआ। परमाणु के सहस्रांश की नाई सूक्ष्म चित्तकला है, उस चित्तकला में अनन्त कोटि सृष्टियाँ स्थित हैं, वही चित्तसत्ता फुरने से जगवरूप हो भासती है और आकाशरूप भोर निराकार शान्तरूप है, न उदय होता है, न अस्त होता है, न आता है और न जाता है। जैसे शिला में रेखा होती है तैसे आत्मा में जगत् है। जैसे आकाश में आकाशसत्ता फुरती है तैसे ही आत्मा में जगत् फुरता है और आत्मा ही में स्थित है। निराकार निर्विकाररूप विज्ञान धनसत्ता अपने आप में स्थित और उदय और मस्त से रहित, विस्तृतरूप है। हे