पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०५
स्थिति प्रकरण।

है, उसमें जो आदि संवेदन फुरता है वह ब्रह्मरूप है और अन्तवाहक देह विराट् जगत् हो भासता है। उसका एक प्रमाणरूप यह तीनों जगत् है, उसमें देश, काल, क्रिया, द्रव्य, दिन, रात्रि कम हुआ है। उसके अणु में जो जगत् फुरते हैं सो क्या हैं? सब संकल्परूप है और ब्रह्मसत्ता का प्रकाश है। जो बुध आत्मज्ञानी है उसको सब जगत् एक ब्रह्मरूप ही भासता है और जो भवानी है उसके चित्त में अनेक प्रकार जगत् की भावना होती है। द्वैत भावना से यह भ्रमता है। जैसे ब्रह्माण्ड के अनेक परमाणु होते हैं, उनके भीतर अनन्त सृष्टियाँ हैं और उनके अन्तर और अनन्त सृष्टि हैं तैसे ही और जो अनन्तर सृष्टि हैं उनके अन्तर और अनन्त सृष्टियाँ फुरती हैं सो सब ब्रह्मतत्त्व का ही प्रकाश है। ब्रह्मरूपी महासुमेरु है, उसके भीतर अनेक जगवरूपी परमाणु हैं सो सब अभिन्नरूप है। हे रामजी! सूर्य की किरणों के समूह में जो सूक्ष्म त्रसरेणु होते हैं उनकी संख्या कदाचित् कोई कर भी सके परन्तु आदि अन्त से रहित जो आत्मरूपी सूर्य है उसकी त्रिलोकी रूपी किरणों की संख्या कोई नहीं कर सकता। जैसे समुद्र में जल और पृथ्वी में धूलि के असंख्य परमाणु हैं तैसे ही आत्मा में असंख्य परमाणुरूप सृष्टियाँ हैं। जैसे आकाश शून्यरूप है तैसे ही आत्मा चिदाकाश जगतरूप है, यह जो मैंने उसकी सृष्टि कही है जो इनको तुम जगत् शब्द से जानोगे तो अज्ञान बुद्धि है और दुःख और भ्रम देखोगे जो इनको ब्रह्मशब्द का अर्थ जानोगे तो इस बुद्धि से परमसार को प्राप्त होगे।सर्वविश्व ब्रह्म से फुरता है और विज्ञानघन ब्रह्मरूप ही है, द्वैत नहीं। जब जागोगे तब तुमको ऐसे ही भासेगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे जगदनन्तवर्णनन्नाम तृतीयस्सर्गः॥३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इन्द्रियों का जीतना मोक्ष का कारण है और किसी क्रम तथा उपाय से संसारसमुद्र नहीं तरा जाता। सन्तों के संग भोर सत्शास्त्रों के विचार से जब आत्मतत्त्व का बोध होता है तब इन्द्रियाँ जीती जाती हैं और जगत् का अत्यन्त प्रभाव होता है जब तक संसार का अत्यन्त प्रभाव नहीं होता तब तक आत्मबोध नहीं होता। यह मैंने तुमसे क्रम कहा है सो संसारसमुद्र तरने का उपाय है। बहुत