पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१४

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योगवाशिष्ठ।

वृत्ति अप्सरा में जा स्थित हुई और कामदेव का वाण आ लगा। इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे भार्गवसंविद्गमनन्नामपञ्चमस्सर्गः॥५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार उसने अप्सरा को देखके नेत्र' मुँदे भौर मनोराज को फैलाकर चिन्तने लगा कि यह मृगनयनी ललना जो स्वर्ग को गई है मैं भी उसके निकट पहुँचूँ। ऐसे विचार के वह उसके पीछे चला और जाते जाते मन से स्वर्ग में पहुँचा। वहाँ सुगन्ध सहित मन्दार भौर कल्पतरु, द्रव स्वर्ण की नाई देवताओं के शरीर और हास विलास संयुक्त त्रियाँ जिनके हरिण की नाई नेत्र हैं देखे। मणियों के समूह कि परस्पर उनमें प्रतिबिम्ब पड़ते हैं और विश्वरूप की उपमा स्वर्गलोक में देखी। मन्द मन्द पवन चलती है, मन्दार वृक्षों में मञ्जरी प्रफुजित हैं और अप्सरागण विचरती हैं। इन्द्र के सम्मुख गया तो देखा कि ऐरावत हस्ती जिसने युद्ध में दाँतों से दैत्य चूर्ण किये हैं बड़े मद सहित खड़ा है, देवताओं के आगे अप्सरा गान करती हैं, सुवर्ण के कमल लगे हुए हैं। ब्रह्मा के हंस और सारस पक्षी विचरते हैं और देवताओं के नायक विश्राम करते हैं। ्। फिर लोकपाल, यम, चन्द्रमा, सूर्य, इन्द्र, वायु और अग्नि के स्थान देखे जिनका महाज्वालवत् प्रकाश है। ऐरावत के दाँतों में दैत्यों की पंक्ति देखी, देवता देखे जो विमानों पर आरूढ़ भूषण पहिने हुए फिरते हैं और उनके हार मणियों से जड़े हुए हैं। कहीं सुन्दर विमानों की पंक्ति विचरती हैं, कहीं मन्दारवृक्ष हैं,कहीं कल्पवृक्ष हैं, उनमें सुन्दर लता है, कहीं गङ्गा का प्रवाह चलता है, उस पर अप्सरागण बैठी हैं, कहीं सुगन्धता सहित पवन चलता है, कहीं भरने में से जल चलता है, कहीं सुन्दर नन्दन वन है, कहीं अप्सरा बैठी हैं, कहीं नारद आदिक बैठे हैं और कहीं जिन लोगों ने पुण्य किये हैं वे बैठे सुख भोगते औरमानों पर आरूढ़ हुए फिरते हैं। कहीं इन्द्र की अप्सरा कामदेव से मस्त हैं और जैसे कल्पवृक्ष में पक्के फल लगते हैं तैसे ही रत्न और चिन्तामणि लगे हैं,और कहीं चन्दकान्तिमणि स्रवती है। इस प्रकार शुक्र ने मन से स्वर्ग की रचना देखा, मानों त्रिलोक की रचना यही है। शुक्र को देखके इन्द्र खड़ा हुआ कि दूसरा भृगु आया हे और बड़े प्रकाश