पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१५

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स्थिति प्रकरण।

संयुक्त शुक्र की मूर्ति को प्रणाम किया और हाथ पकड़ के अपने पास बैठा के बोला, हे शुक्रजी! आज हमारे धन्य भाग हैं जो तुम आये। आज हमारा स्वर्ग तुम्हारे आने से सफल, शोभित और निर्मल हुआ है। भब तुम चिरपर्यन्त यहीं रहो। जब ऐसे इन्द्र ने कहा तब शुक्रजी शोभित हुए और उसको देखके सुरों के समूह ने प्रणाम किया कि भृगु के पुत्र शुक्रजी आये हैं।

इतिश्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे भार्गवमनोराजवर्णनन्नाम षष्ठस्सर्ग॥६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार शुक्रजी इन्द्र के पास जा बैठे तब अपना जो निज भाव था उसको भुला दिया। वह जो मन्दराचल पर्वत पर अपना शरीर था सो भूल गया और वासना से मनोराज का शरीर दृढ़ हो गया। एक मुहूर्त पर्यन्त इन्द्र के पास बैठे रहे परन्तु चित्त उस अप्सरा में रहा। इसके अनन्तर उठ खड़े हुए और स्वर्ग को देखने लगे तब देवताओं ने कहा कि चलो स्वर्ग की रचना देखो। तब शुक्रजी देखते-देखते जहाँ वह अप्सरा थी वहाँ गये। बहुत-सी अप्सराओं में वह बैठी थी, उसको शुक्रजी ने इस भाँति देखा जैसे चन्द्रमा चाँदनी को देखे। उसे देखके शुक्र का शरीर वीभत होकर अस्वेद से पूर्ण हुमा जैसे चन्द्रमा को देखके चन्द्रकान्तिमणि द्रवीभूत होती है, और कामदेव के बाण उसके हृदय में ना लगे उससे व्याकुल हो गया। शुक्र को देखके उसका चित्त भी मोहित हो गया—जैसे वर्षाकाल की नदी जल से पूर्ण होती है तैसे ही परस्पर स्नेह बढ़ा। तब शुक्रजी ने मन से तम रचा उससे सब स्थानों में तम हो गया जैसे लोकालोक पर्वत के तट में तम होता है तैसे ही सूर्य का प्रभाव हो गया। तब भृतजात सब अपने-अपने स्थानों में गये जैसे दिनके अभाव हुए पशु-पक्षी अपने-अपने गृह को जाते हैं और वह अप्सरा शुक्र के निकट आई। शुक्रजी श्वेत भासन पर बैठ गये और अप्सरा भी जो सुन्दर वन और भूषण पहिने हुए थी चरणों के निकट बैठी और स्नेह से दोनों कामवश हुए। तब अप्सरा ने मधुवाणी से कहा, हे नाथ! मैं निर्बल होकर तुम्हारे शरण आई हूँ मुझको कामदेव वहन करता है, तुम रखा करो, मैं