पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१८

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योगवाशिष्ठ।

रहा। जब इकहत्तर चौयुगी बीतीं तब वह भोगों के वश हरिणी का पुत्र हुआ और मनुष्य के आकार से वहाँ रहा और पुत्र के स्नेह से मोह को प्राप्त हो निरन्तर यही चिन्तना करने लगा कि मेरे पुत्र को बहुत धन, गुण, भायु, बल हो, इस कारण तप के भ्रष्ट होने से अपने धर्म से विरक्त हुआ, आयुष्य क्षीण हुई और मृत्युरूप सर्प ने ग्रस लिया और तप की अभिलाषा से शरीर छूटा इस कारण भोग की चिन्तासंयुक्त मद्रदेश के राजा के गृह में उत्पन्न हुभा, फिर उस देश का राजा हुभा और चिरपर्यन्त राज्य भोग के वृद्धावस्था को प्राप्त हुआ और शरीर जर्जरीभूत हो गया। वहाँ तप के अभिलाषा में उसका शरीर छूटा उससे तपेश्वर के गृह में पुत्र हुआ और सन्ताप से रहित होकर गङ्गाजी के किनारे पर तप करने लगा। है रामजी! इस प्रकार मन के फुरने से शुक्र ने अनेक शरीर भोगे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे भार्गवोपाख्याने विविधजन्म
वर्णनमाम प्रष्टमस्सर्गः॥८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार शुक्र मन से भ्रमता फिरा। भृगु के पास जो उसका शरीर पड़ा था सो निर्जीव हुमा पुर्यष्टक निकल गई थी और पवन और धूप से शरीर जर्जरीभूत हो गया जैसे मूल से काटा वृक्ष गिर पड़ता है, तेसे शरीर गिर पड़ा। चञ्चल मन भोग की तृष्णा से वहाँ गया था। जैसे हरिण वन में भ्रमता है और चक्र पर चढ़ा वासन भ्रमता हे तैसे ही उसने भ्रम से भ्रमान्तर देखा, पर जब मुनीश्वर के गृह में जन्म लिया तब चित्त में विश्राम हुआ और गङ्गा के तट पर तप करने लगा। निदान मन्दराचल पर्वतवाला शुक्रका शरीर निरस हो गया स्थित चर्ममात्र शेष रह गया और लोहसूख गया। जपशरीर के रन्ध्र मार्ग से पवन चले तब बाँसुरीवत् शब्द हो, मानो चेष्टा को त्याग के शरीर आनन्दवान् हुआ है जब बड़ा पवन चले तब भूमि में लोटने लगे, नेत्र आदिक जो रन्ध्रथेसोगर्तवत हो गये और मुख फैल गया—मानो अपने पूर्वस्वभाव को देखके हँसता है, जब वर्षाकाल भावे तब वह शरीर जल से पूर्ण हो जावे और जल उसमें प्रवेश करके रन्धों के मार्ग से ऐसे निकले जैसे भरने से निकलता है और जब उष्णकाल भावे तब महाकाष्ठ की नाई धूप से